हिमाचल में लोकसभा का मौजूदा चुनाव कई मायनों से अलग नज़र आ रहा है। इस बार अधिकतर सीटों पर चुनाव नई पीढ़ी लड़ रही है लेकिन पुरानी पीढ़ी के साथ की सबको दरकार है। सबकी निगाहें हिमाचल के चार दिग्गज वरिष्ठ नेताओं पर टिकी है। ये चारों ही इस बार चुनाव नही लड़ रहे है लेकिन इन पर चुनाव की दिशा व दशा तय करने का जिम्मा है। ये नेता चुनाव का पाशा पलटने का दम रखते है। बशर्ते कि ये दिल से मेहनत करें। बाहर से तो ये नेता अपनी अपनी पार्टी के चुनाव प्रचार के लिए खूब पसीना बहा रहे हैं। लेकिन अंदर की सियासत को सियासतदानों के चश्मे से देखने की जरूरत है।
सबसे पहले हिमाचल के छः बार मुख्यमंत्री रहे वीरभद्र सिंह की करते है। जिनकी सियासत से सभी बाक़िब है। यदि ठान ले तो किसी भी चुनाव का रुख बदल सकते हैं। दूसरी तरफ़ पूर्व केंद्रीय मंत्री सुखराम है जिन्होंने मंडी की राजनीति में अपना अलग स्थान बनाया ओर कई बार हिमाचल की राजनीति में उथल पुथल मचाई है। सुखराम पर इस मर्तबा अपने पोते को जीत की दहलीज तक पहुंचाने का दबाब है क्योंकि इनके लिए मंडी प्रतिष्ठा का सवाल बन चुकी है। दूसरी तरफ़ वीरभद्र सिंह है जो इस बार किसी दबाब में नही है वह हर जगह जाकर प्रचार कर रहे है। इस बार दो धुर विरोधी रहे सुखराम शर्मा व वीरभद्र सिंह गले मिले है। इनके मतभेद किसी से छिपे नही है इस बार नई पीढ़ी के लिए गले मिले है लेकिन क्या ये नेता मनभेद मिटा पाए है?
दूसरी तरफ हिमाचल के दो मुख्यमंत्री है जिनके आपसी मतभेद भी किसी से छीपे नही है। 1998 में शांता कुमार पर भारी पड़े प्रेम कुमार धूमल के बीच छतीस का आंकड़ा रहा। दोनों के मतभेदों की खबरें जगज़ाहिर है। इस बार दोनों ही नेता चुनाव नही लड़ रहे है लेकिन दोनों पर भाजपा की जीत का दारोमदार है। एक तरफ प्रेम कुमार धूमल पर अपने बेटे अनुराग ठाकुर के सिर पर चौथी बार जीत का सेहरा बांधने की जिम्मेदारी है तो दूसरी तरफ शांता कुमार पर अपने चेले किशन कपूर को विजय बनाने का दबाब है। ऐसे में जो नेता एक मंच पर कभी कभार नज़र आते थे। अब कई मंचो पर साथ नज़र आ रहे है। ऐसे में इनके मतभेद मनभेद पर कितने भारी है कुछ कहा नही जा सकता?