सूचना एवं प्रौद्योगिकी के इस दौर में बेशक कुछ लोग चांद और मंगल ग्रह पर घर बनाने का सपना देख रहे हों, मगर इसी दुनिया में कुछ समुदाय ऐसे भी हैं, जो अपने लिए दो गज जमीन और सिर पर छत की व्यवस्था नहीं कर पाए। ऐसा ही एक समुदाय सिरमौरी गुर्जरों का भी है, जो अब तक खानाबदोश जैसा जीवन जी रहे हैं। आधुनिकता की चकाचौंध से कोसों दूर अपने मवेशियों के साथ जंगल-जंगल घूम कर मस्ती से जीवन यापन करने वाले सिरमौरी गुज्जर समुदाय के लोग इन दिनों मैदानी इलाकों से गिरिपार अथवा जिला के पहाड़ी क्षेत्रों के छः माह के प्रवास पर निकल चुके हैं।
गिरिपार क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले उपमंडल संगड़ाह, राजगढ़ और शिलाई के पहाड़ी जंगलों में सदियों से मई महीने में उक्त समुदाय के लोग अपनी भैंस, गाय, बकरी व भारवाहक बैल आदि मवेशियों के साथ गर्मियां बिताने पहुंचते हैं। इनके मवेशियों के सड़क से निकलने के दौरान क्षेत्र की तंग सड़कों पर वाहन चालकों को कईं बार जाम की समस्या से जूझना पड़ता है।
सिरमौरी साहित्यकारों और इतिहासकारों के अनुसार सिरमौरी गुर्जर छठी शताब्दी में मध्य एशिया से आई हूण जनजाति के वंशज हैं। इस समुदाय का सोशल मीडिया, मीडिया, सियासत, औपचारिक शिक्षा, इंटरनेट व एंड्रॉयड फोन आदि से नजदीक का नाता नहीं है। जिला में यह एकमात्र अनुसूचित जनजाति का घुमंतू समुदाय है तथा इनकी जनसंख्या मात्र दो हजार के करीब है। खंड शिक्षा अधिकारी संगड़ाह के अनुसार घुमंतू गुज्जर समुदाय के बच्चों के लिए चलाए जा रहे विशेष मोबाइल स्कूलों मे इन छात्रों को अन्य विद्यार्थियों से ज्यादा सुविधाएं सरकार द्वारा मुहैया करवाई जा रही है।
जंगलों में परिवार के साथ जिंदगी बिताने के दौरान न केवल उक्त समुदाय के लोगों के अनुसार उन्हें प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता है, बल्कि कईं बार जंगली जानवरों, स्थानीय लोगों व संबंधित कर्मियों की बेरुखी का भी सामना करना पड़ता है। जिला के पांवटा-दून, नाहन व गिन्नी-घाड़ आदि मैदानी क्षेत्रों से चूड़धार, उपमण्डल संगड़ाह अथवा गिरिपार के जंगलों तक पहुंचने में उन्हें करीब एक माह का वक्त लग जाता है। पहाड़ों का गृष्मकालीन प्रवास पूरा होने के बाद उक्त घुमंतू समुदाय अपने मवेशियों के साथ मैदानी इलाकों के अगले छह माह के प्रवास पर निकल जाएगा और इसी तरह इनका पूरा जीवन बीत जाता है।