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सुलगते जंगल-तपते पहाड़, बस्तियों पर मंडरा रहा ख़तरा

पी. चंद |

शिमला के शैतानी चीड़ की नुकीली पत्तियों ने फिर से जंगल का जनाजा निकालना शुरू कर दिया है। हिमाचल में जंगलों के बदन पर जैसे किसी ने बारूद छिड़कना शुरू कर दिया है और मौसम की गर्म भट्ठी ने पर्यावरण को सेंकना शुरू कर दिया है। ऐसा लगता है कि चीड़ की पत्तियों और आग के बीच चोली-दामन का साथ है जो पहाड़ों की सीने में हर साल सुलगती है। मात्र बिरोजा उद्योग के फ़ायदे के लिए चीड़ उगाना जंगलों को तबाह करना है। 

हर साल जंगल की आग से हिमाचल आहत होता है। लेकिन जनसमुदाय को इतना भी अधिकार नहीं कि बारूद बन चुके और बस्तियों को चपेट में लेते जंगल से चीड़ के पेड़ हटा दें। सरकारें आग से जंगलों को बचाने के नाम पर करोड़ों खर्च कर देती है लेकिन नतीज़ा शून्य ही निकलता है। 

तेज़ धूप खिलने के साथ ही शिमला में भी आगज़नी के मामले सामने आने लगे है। आसपास के क्षेत्रों में जंगल दहक रहे है। अग्निशमन विभाग के मुताबिक हिमाचल में अभी तक 600 के करीब मामले सामने आए है जिनमें लाखों का नुकसान सामने आया है। यदि हिमाचल में चीड़ के बदले चौड़ी पत्ती के पेड़ उगाते हैं, तो गर्मियां शांत रहेंगी और वातावरण में धुएं का गुबार भी कम होगा। अगर जंगल राष्ट्रीय संपदा है, तो इनकी आग को राष्ट्रीय आपदा के रूप में देखना चाहिए। वन संरक्षण अधिनियम की आड़ में कब तक करोड़ों की सम्पति भेंट चढ़ती रहेगी। ऐसे में नई वन नीति की दरकार है।