दशहरे का पर्व पूरे देश भर में मनाया जाता है। मगर हिमाचल का एक शहर ऐसा भी है जहां रावण का दहन आज तक नहीं किया जाता। यहां के लोग मानते हैं कि ऐसा करने से भगवान शिव नाराज हो जाते हैं।
लंकापति रावण के पुतले को भले ही दशहरे के दिन बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक के रूप में जलाया जाता हो लेकिन रावण के और भी रूप थे। जिन रूपों के कारण रावण को महान भी माना जाता था। दशानन एक प्रकांड पंडित कई कलाओं में माहिर होने के साथ-साथ भगवान शिव का परम भक्त भी था। यही कारण है कि आज भी बैजनाथ में दशहरा नहीं मनाया जाता है। माना जाता है कि यदि यहां दशहरा मनाया गया तो रावण का पुतला जलाने वाले की खैर नहीं होती है।
कांगड़ा के बैजनाथ में भगवान शिव का अति प्राचीन शिव मंदिर है। मान्यता है कि यहां स्थापित शिवलिंग रावण द्वारा लंका ले जाई जा रही वही शिवलिंग है। जो भगवान शिव से बीच रास्ते में न रखने की एक शर्त के पूरा न होने के कारण यहां स्थापित हो गई थी। उसके बाद रावण ने यहीं पर भगवान शिव की तपस्या की थी और मोक्ष का वरदान प्राप्त किया था। कहा जाता है कि रावण ने यहीं पर तप के दौरान हवन कुंड में अपने दस सिरों की भी आहुति दी थी। रावण के शिव भगवान के परम भक्त होने के कारण यहां दशकों से दशहरा नहीं मानाया जाता था।
70 के दशक में बैजनाथ के कुछ लोगों ने शिव मंदिर के ठीक सामने एक मैदान में दशहरा मनाना शुरू किया। यहां भी रावण, कुंभकर्ण व मेघनाथ के पुतले जलाए गए। ऐसा करीब पांच वर्ष तक चला लेकिन उस दौरान यहां रावण का पुतले को आग लगाने वालों के साथ अनहोनी होना शुरू हो गई। कुछ लोगों के घरों में नुकसान हुआ तो कुछ लोग अगले दशहरे तक जीवित नहीं रहे। इसके बाद यहां दशहरा मनाने की परंपरा को बंद कर दिया गया। इसके पीछे तर्क दिया गया कि भगवान शिव अपने सामने अपने भक्त की हानि नहीं देख सकते। यह सिलसिला अब भी बरकरार है। यहां रावण का पुतला जलाना तो दूर इसके बारे सोचना भी पाप माना जाता है।