जिला सिरमौर जिले के गिरिपार क्षेत्र में बीती रात से ही बूढ़ी दिवाली का आगाज हो गया है। बूढ़ी दिवाली का यह पर्व गिरी पार क्षेत्र में 4 दिन से 7 दिन तक मनाया जाता है। मान्यता है कि दीपावली से अगली अमावस्या में दैत्यराज बली पाताल लोक से धरती पर आए थे। उनके धरती पर आगमन की खुशी में उस समय दिवाली जैसा त्यौहार मनाया था। उस समय से चली आ रही इस पौराणिक त्यौहार की परंपरा को आज बूढ़ी दिवाली कहा जाता है। इस त्यौहार को मनाने के पीछे एक मान्यता भगवान श्री राम के अयोध्या आगमन से भी जुड़ी है। बताया जाता है कि सुदूर पहाड़ी क्षेत्रों में भगवान श्री राम के अयोध्या आगमन की खबर एक महीने बाद पहुंची थी। ऐसे में पहाड़ी क्षेत्र के लोगों ने उसी दिन दिवाली मनाई थी।
हालांकि बूढ़ी दिवाली क्यों मनाई जाती है, इसके कोई शास्त्रीय प्रमाण नहीं है। लेकिन इस त्यौहार के प्रति लोगों की आस्था बरकरार है। गिरी क्षेत्र के अधिकतर हिस्सों में आज भी लोग अमावस्या की सुबह तड़के हाथ में मशालें लेकर ढोल नगाड़ों की थाप पर नाचते गाते बूढ़ी दिवाली की शुरुआत करते हैं। मसालों का यह जुलूस गांव के बाहर तक जाता है। जहां एकत्र घास फूस को जलाया जाता है।
इसके पीछे मान्यता यह है कि मशालों का भय दिखाकर बुरी आत्माओं और विपत्तियों को गांव के बाहर कर कूड़े के ढेर में जला दिया जाता है। जिससे साल भर गांव की बुरी आत्माओं और रोगों आदि से रक्षा होती है। इसके बाद कई दिन तक चलने वाला बूढ़ी दिवाली का जश्न शुरू होता है। इस त्यौहार पर नवविवाहित लड़कियां अपने मायके आती हैं और परिवार के साथ त्यौहार मनाती हैं। त्यौहार की खासियत यह है कि लगातार चार से 7 दिन तक परंपरागत व्यंजन हर रसोई में बनते हैं। बूढ़ी दिवाली पर विशेष तौर पर गेहूं की नमकीन यानी मूड़ा और चावल के पापड़ बनाए जाते हैं। घर में आने वाले हर मेहमान और मित्र बंधुओं को मूड़ा और पापड़ अखरोट के साथ परोसे जाते हैं।
बूढ़ी दिवाली के त्यौहार पर लोग खाने-पीने के साथ-साथ नाच गाने का भी जमकर लुत्फ उठाते उठाते हैं। अमावस्या के कई दिनों तक नाच गाना और मस्ती चलती है। परम परंपरागत वेशभूषा में सजे स्त्री पुरुष ढोल नगाड़ों और हुड़क की थाप पर नाचते गाते हैं। इस अवसर पर स्थानीय देवी देवताओं की भी विधिवत पूजा की जाती है और उनको दिवाली का हिस्सा अर्पित किया जाता है। त्यौहार की एक खासियत यह भी है कि क्षेत्र के लोग खासकर युवा देश में कहीं भी हो बूढ़ी दिवाली पर अपने घर जरूर पहुंचते हैं। बूढ़ी दिवाली क्षेत्र का ना सिर्फ धार्मिक बल्कि सामाजिक रूप से भी लोगों को आपस में जोड़कर रखने का अनोखा त्यौहार है। ऐसा नहीं है कि बदलते समय के साथ पाश्चात्य संस्कृति का रंग पहाड़ों पर नहीं चढ़ा है लेकिन बावजूद उसके क्षेत्र के युवाओं ने बूढ़ी दिवाली सरीखे प्राचीन परंपरागत त्योहारों को अब तक संजोह कर रखा है। युवाओं का इस त्यौहार और अपनी संस्कृति और परंपराओं के प्रति लगाओ देखते ही बनता है। यही कारण है कि बूढ़ी दिवाली का त्यौहार आज भी सुदूर गिरी पार्षदों में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।