केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय के 2018 के उस फैसले पर पुनर्विचार याचिका दाखिल की हैं जिसमें अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति समुदाय की क्रीमी लेयर को आरक्षण के लाभ से बाहर रखने का आदेश दिया गया था। अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने आज अनुसूचित जाति और जनजाति समुदाय मामले को 7 जजों की बेंच को भेजे जाने का आग्रह किया है। इसपर सुप्रीम कोर्ट की ओर से दो हफ्ते बाद सुनवाई की सहमति जताई गई है।
क्या था सुप्रीम का फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने याचिका पर सुनवाई करते हुए एससी/एसटी ऐक्ट में तत्काल गिरफ्तारी न किए जाने का आदेश दिया था। इसके अलावा एससी/एसटी ऐक्ट के तहत दर्ज होने वाले केसों में अग्रिम जमानत को भी मंजूरी दी थी। शीर्ष अदालत ने कहा कि इस कानून के तहत दर्ज मामलों में ऑटोमेटिक गिरफ्तारी की बजाय पुलिस को 7 दिन के भीतर जांच करनी चाहिए और फिर आगे ऐक्शन लेना चाहिए। यही नहीं शीर्ष अदालत ने कहा था कि सरकारी अधिकारी की गिरफ्तारी अपॉइंटिंग अथॉरिटी की मंजूरी के बिना नहीं की जा सकती। गैर-सरकारी कर्मी की गिरफ्तारी के लिए एसएसपी की मंजूरी जरूरी होगी।
पूरा मामला
एससी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले एक शख्स ने महाराष्ट्र के सरकारी अधिकारी सुभाष काशीनाथ महाजन के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई थी। शिकायत में महाजन पर शख्स ने अपने ऊपर कथित आपत्तिजनक टिप्पणी के मामले में अपने दो जूनियर एंप्लॉयीज के खिलाफ कानूनी कार्रवाई पर रोक लगाने का आरोप लगाया था। याचिकाकर्ता का कहना था कि उन एंप्लॉयीज ने उन पर जातिसूचक टिप्पणी की थी। गैर-अनुसूचित जाति के इन अधिकारियों ने उस व्यक्ति की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में उसके खिलाफ टिप्पणी की थी। जब मामले की जांच कर रहे पुलिस अधिकारी ने अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई के लिए उनके वरिष्ठ अधिकारी से इजाजत मांगी तो इजाजत नहीं दी गई। इस पर उनके खिलाफ भी पुलिस में मामला दर्ज कर दिया गया। बचाव पक्ष का कहना है कि अगर किसी अनुसूचित जाति के व्यक्ति के खिलाफ ईमानदार टिप्पणी करना अपराध हो जाएगा तो इससे काम करना मुश्किल जो जाएगा।