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#Opinion: बेटियों के लिए आदर्श मुथुलक्ष्मी क्यों नहीं…??

डेस्क |

तरुण श्रीधर, IAS
( हिमाचल प्रदेश के पूर्व अतिरिक्त मुख्य सचिन और पूर्व सचिव ,भारत सरकार ,नई दिल्ली द्वारा दैनिक जागरण समाचार पत्र में सितंबर 17 ,2020 को छपा गया यह लेख समाचार फर्स्ट अपने पाठकों के लिए पेश करता है )

चेन्नई में एक सड़क का नाम है डॉक्टर मुथुलक्ष्मी रेड्डी रोड है। एक- आध बार इस सड़क से गुजरा पर इस नाम की ओर ध्यान नहीं गया। आज जब इनके बारे में पढ़ा तो पश्चाताप हुआ कि आज तक देश की सर्वाधिक प्रतिष्ठित महिलाओं में से एक के बारे में अनभिज्ञ कैसे रहा? मलाल इस बात का भी है कि कंगना रनौत और रिया चक्रवर्ती के बारे में मीडिया या सोशल मीडिया के माध्यम से मैं अधिक जानता हूं, बजाय देश की प्रथम महिला चिकित्सकों में एक डॉ. मुथुलक्ष्मी रेड्डी के।

इतना जानता हूं कि कंगना हिमाचल के एक साधारण मध्यवर्गीय परिवार से हैं। अपनी मेहनत के बल पर कामयाब अभिनेत्री बन गई हैं। इसके अतिरिक्त उनकी प्रतिभा पर टिप्पणी नहीं कर सकता, क्योंकि कोई भी फिल्म देखने का अवसर नहीं मिला। रिया का तो नाम भी अभी सुना है और न ही सुशांत सिंह राजपूत के बारे में कुछ जानता था। आज जब समाचार पत्रों, टेलिविजन और सोशल मीडिया पर संवाद का अपहरण इन अपरंपरागत युवा महिलाओं के जीवन की घटनाओं ने कर लिया है तो डॉक्टर मुथुलक्ष्मी रेड्डी के जीवन से परिचय करवाना, विशेषकर युवा पीढ़ी का उपयुक्त होगा। यदि सोशल मीडिया के अनुसार कंगना नारी सशक्तिकरण और रिया नारी उत्पीड़न का प्रतीक है तो मुथुलक्ष्मी का जीवन क्या संदेश देगा?

मुथुलक्ष्मी रेड्डी का जन्म 1886 में तमिलनाडु की पुदुकोट्टई रियासत में हुआ था। उनकी मां देवदासी थीं। देवदासी ऐसी महिलाएं थीं जो स्थाई रूप से मंदिर के देवताओं के लिए समर्पित । उन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी नृत्य कला से देवताओं की आराधना और सेवा करनी होती थी। देवदासियां अक्सर शोषण, मुख्यतः यौन शोषण का शिकार बनती थीं इनका जीवन वेश्यावृत्ति से भी बदतर था। यौवन की दहलीज पर लड़की को एक विशेष धार्मिक समारोह द्वारा देवदासी समुदाय में सम्मिलित कर देवता को समर्पित कर दिया जाता था। एक पुरुष जिसका संरक्षक होगा, लेकिन महिला को उसके उपनाम या विरासत का कोई अधिकार नहीं होगा। देवदासियों को विवाह की अनुमति नहीं थी और उन्हें 'नित्यसुमंगली' कहा जाता था। इसका अर्थ है विधवापन से प्रतिरक्षा। यह भी मृदु भाषा में एक भद्दी गाली ही थी-आखिरकार, यदि किसी को शादी की ही अनुमति नहीं है तो कोई विधवा कैसे हो सकती है? मुथुलक्ष्मी के पिता नारायण स्वामी अय्यर । स्कूल प्रिंसिपल थे उन्होंने देवदासी से विवाह किया था। उन्हें व उनके परिवार को समुदाय और समाज से निष्कासित कर दिया गया था फिर भी नारायण स्वामी । का समाज द्रोह बरकरार रहा और बेटी को स्कूल में दाखिल करवाया। कक्षा कक्ष में पर्दा लगवाना पड़ा कि लड़कियों पर कोई बुरा प्रभाव न पड़े। । अभिभावकों ने विरोध किया कि एक पतिता देवदासी । की पुत्री किस अधिकार के तहत स्कूल में पढ़ सकती । है। उनके अनुसार यह साजिश थी उनके मासूम बच्चों को खराब करने की। विरोध में कुछ अध्यापकों । ने तो नौकरी से ही त्यागपत्र दे दिया। युवावस्था की दहलीज पर पहुंचने पर मुथुलक्ष्मी को स्कूल छोड़ना । पड़ा, क्योंकि ऐसा नियम था पिता के समर्थन से बाकी शिक्षा घर पर पूरी की हौसला देखिए, उसने । चिकित्सा का अध्ययन करने की ठान ली। इसके लिए पुदुकोट्टई के महाराजा से धनराशि मांग ली। कहते हैं महाराजा स्तब्ध रह गए, पर फिर भी 150 रुपये की राजसी राशि मुथुलक्ष्मी को डॉक्टरी शिक्षा के लिए दी। अब मुथुलक्ष्मी ने नई उड़ान भरी।

(दैनिक जागरण में छपे आर्टिकल की प्रतिलिपी)

वह मद्रास मेडिकल कॉलेज में प्रवेश करने वाली पहली महिला बनी। कक्षा में अव्वल रहती थीं। प्रोफेसर तब चौंक गए, जब मुथुलक्ष्मी ने प्रसूति विज्ञान और सर्जरी विषय चुने। वह 1912 में प्रसूति विशेषज्ञ बन गई। जल्द ही मुथुलक्ष्मी के जीवन में एक और महत्वपूर्ण मोड़ आया। उसकी बहन कैंसर की शिकार बनी। उस समय देश में कैंसर के बारे में जानकारी नहीं थी। मुथुलक्ष्मी ने इंग्लैंड में कैंसर के इलाज का प्रशिक्षण लिया और मद्रास के पहले कैंसर अस्पताल, अड्यार कैंसर इंस्टीट्यूट की स्थापना की। यह आज भी देश का अग्रणी कैंसर हॉस्पिटल और शोध संस्थान है।

डॉक्टर मुथुलक्ष्मी ने देवदासी प्रथा में धकेली गई लड़कियों, अनाथ, बेसहारा औऱपरित्यक्त महिलाओं को आश्रय, शिक्षा और सम्माजनक जीवन प्रदान करने के लिए चेत्राई में अब्बा होम नाम से एक संस्था की स्थापना की। संस्था आज भी कार्यरत है सरोजिनी नायडू से संपर्क हुआ और वह राष्ट्रवादी धारा से जुड़ गई। राजनीतिक प्रभाव के महत्व को महसूस किया और ब्रिटिश भारत में विधान परिषद में शामिल होने वाली पहली महिला बनीं। वह दुनिया की भी पहली महिला थीं जो विधान परिषद की अध्यक्ष बनीं।

देवदासियों की मुक्ति के लिए मुथुलक्ष्मी ने जोरदार संघर्ष किया और डॉ राजगोपालाचारी जैसी शख्सियत का भी विरोध किया। एक बैठक में एक वक्ता ने देवदासियों को अपनी 'गिरी हुई बहनों की दिया तो वह गरज कर बोली, 'आप उन्हें गिरी हुई बहन कैसे कहते हैं? पुरुष शुद्धता के बिना महिला शुद्धता असंभव है। जिन पुरुषों ने उनका शोषण किया, उन्हें जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए।' डॉ राजगोपालाचारी से मुथुलक्ष्मी ने कहा, 'यदि आपको कला और संस्कृति को संरक्षित करने के लिए महिला की आवश्यकता है, तो आप देवदासियों को छोड़कर अपने घर की महिलाओं को क्यों नहीं भेजते?' 05 दिसंबर,1947 को लंबे समय तक कठोर प्रतिरोध के बावजूद संघर्ष का परिणाम मिला और मद्रास प्रेसीडेंसी ने देवदासी प्रथा को समाप्त करने का कानून पारित किया।

डॉक्टर मुथुलक्ष्मी को पहचान मिली, पुरस्कार मिले। 1956 में पद्म भूषण से भी सम्मानित किया गया। तमिलनाडु में तो आज कई स्वास्थ्य व महिला उत्थान से संबंधित योजनाएं और कार्यक्रम इनके नाम पर हैं। यह कहानी है साहस की, भाग्य के समक्ष समर्पण की बजाय उस पर विजय की। भाग्य से अधिक शक्तिशाली है इच्छाशक्ति। यह है सच्ची मिसाल नारी सशक्तिकरण की। यह मिसाल है की नीतियों और अन्याय के विरुद्ध बहादुरी से जंग की; एक सकारात्मक जंग समाज के लिए, न कि खुद के विज्ञापन और प्रचार प्रसार की। यह कहानी अपनी बेटियों और बहनों को अवश्य सुने और उन्हें फैसला करने दें कि उनका प्रेरणास्त्रोत कौन होगा?

आज की सेलिब्रिटीज या डॉक्टर मुथुलक्ष्मी रेड्डी?