वैसे तो कांगड़ा जिला में कई प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है। लेकिन बृजेश्वरी का मंदिर को अपनी अलग महिमा है। ब्रिजेश्वरी देवी को नगरकोट वाली मां के नाम से भी जाना जाता है। ये मंदिर कांगड़ा के नजदीकी रेलवे स्टेशन से 11 किमी दूर पर स्थित है। कांगड़ा का ऐतिहासिक किला भी मंदिर के पास ही स्थित है। ये मंदिर भी मां भगवती के 51 शक्तिपीठों में से है जहां देश भर के लोगों की गुड़ आस्था है। पौराणिक कथा के मुताबिक़ जब देवी सती ने भगवान शिव के सम्मान में अपने पिता यज्ञ में बलिदान दिया। शिव ने सती के शरीर को अपने कंधे पर उठा कर इधर उधर भड़कने लगे। जगत को बचाने के लिए भगवान विष्णु ने अपने चक्र से सती के शरीर को 51 भागों में विभाजित कर दिया। कहा जाता है कि सती का बायां वक्षस्थल इस स्थान पर गिरा, इस प्रकार यह एक शक्ति पीठ बना। स्तनभाग गिरने पर शक्ति जिस रूप में प्रकट हुई वह बृजेश्वरी मां कहलाती है।
मूल मंदिर महाभारत के समय पांडवों द्वारा बनाया गया था। किंवदंती कहते हैं कि एक दिन पांडवों ने अपने स्वप्न में देवी दुर्गा को देखा था ओर मां ने उन्हें बताया कि वह नागराकोट गांव में है और यदि वे चाहते हैं कि वे स्वयं को सुरक्षित रखें तो उन्हें उस क्षेत्र में उनके लिए मंदिर बनाना चाहिए। उसी रात उन्होंने नगरकोट गांव में मां भगवती के लिए एक शानदार मंदिर बनाया। यह मंदिर मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा कई बार लुटा गया। मोहम्मद गज़नबी ने ही इस मंदिर को 5 बार लूट लुटा। बताया जाता है कि अतीत में इसमें सोने का टन और शुद्ध चांदी से बनने वाले कई घण्टे थे। 1905 में कांगड़ा में आए विनाशकारी भूकंप से मंदिर नष्ट हो गया था बाद में सरकार ने इसे फिर से बनवाया।
बृजेश्वरी देवी मंदिर मंदिर, तन्त्र-मन्त्र, सिद्धियों, ज्योतिष विद्याओं, तन्त्रोक्त शक्तियों, देव परंपराओं की प्राप्ति का स्थान रहा है। यह मंदिर मध्यकालीन मिश्रित वास्तुशिल्प का सुन्दरतम उदाहरण है। सभामण्डप अनेक स्तम्भों से सुसज्जित है। इस मंदिर के अग्रभाग में प्रवेश द्वार से जुड़े मुखमंडप और सभामंडप के शीर्ष भाग पर बने छोटे-छोटे गुम्बद, शिखर, कलश और मंदिर के स्तम्भ समूह पर मुगल और राजपूतकालीन शिल्प का प्रभाव दिख पड़ता है। यह स्तम्भ घट पल्लव शैली में बने हैं।
बृजेश्वरी मंदिर के गर्भगृह में भद्रकाली, एकादशी और बृजेश्वरी स्वरूपा तीन पिण्डियों की पूजा की जाती है। यहां पिण्डी के साथ अष्टधातु का बना एक पुरातन त्रिशूल भी है जिस पर दस महाविद्याओं के दस यंत्र अंकित हैं। इसी त्रिशूल के अधोभाग पर दुर्गा सप्तशती कवच उत्कीर्ण है। जनश्रुति है कि इस पर चढ़ाए गए जल को आसन्नप्रसू स्त्री को पिलाने से शीघ्र प्रसव हो जाता है। यही जल गंगा जल की तरह आखरी सांसों में मुक्ति दिलवाता है ।
इस मंदिर में जालंधर दैत्य का संहार करती देवी को रूद्र मुद्रा में दर्शाती एक पुरातन मूर्ति है। इसमें देवी द्वारा दानव को चरणों के नीचे दबोचा हुआ दिखाया है। इस मंदिर परिसर असंख्य देवी-देवताओं की पुरातन मुर्तिया देखी जा सकती हैं। जनश्रुति के अनुसार है जालंधर दैत्य का संहार करने पर माता की कोमल देह पर अनेक चोटें आ गई थीं। इसका उपचार देवताओं ने जख्मों पर घी लगाकर किया था। आज भी उसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए संक्रांति को माता की पिण्डी पर पांच मन देसी घी, मक्खन चढ़ाया जाता है, उसी के ऊपर मेवे और फलों को रखा जाता है। यह भोग लगाने का सिलसिला सात दिन तक चलता है। फिर भोग को प्रतिदिन श्रद्धालुओं में प्रसाद स्वरूप बांट दिया जाता है।