14 अप्रैल 1937 को शब्द साहित्य की अनुपम साधिका संतोष शैलजा का जन्म हुआ था। आज शाम हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी द्वारा साहित्य कला संवाद कार्यक्रम में संतोष शैलजा की जीवन यात्रा और उनकी साहित्यिक रचनाधर्मिता पर एक वार्ता का आयोजन किया गया। कार्यक्रम में हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री आदरणीय शांता कुमार जी मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहे। उनकी गरिमामयी उपस्थिति ने कार्यक्रम को अविस्मरणीय बना दिया। इस कार्यक्रम की संकल्पना पालमपुर की चंद्रकांता द्वारा की गई थी जिसमें हिमाचल अकादमी के सचिव डॉ. कर्म सिंह, तकनीकी सहयोगी एवं सम्पादक हितेन्द्र शर्मा, सतीश धर एवं शांता कुमार और उनकी टीम का अबाध सहयोग प्राप्त हुआ।
शांता कुमार ने आपातकाल के समय जेल से हुए दंपति के पत्र व्यवहार के संस्मरण साझा किए। उन्होंने अपनी साहित्यिक और राजनीतिक यात्रा में संतोष के अमूल्य योगदान पर भी चर्चा की। संतोष के कृतित्व पर बात करते हुए शांता ने कहा की उनकी रचनाधर्मिता देखकर मैं सदैव हतप्रभ रहता था कि वे गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारियों के मध्य किस तरह साहित्य रचना के लिए समय निकाल लिया करती थीं। बुजुर्गों के लिए 'विश्रांति' आश्रम बनाना संतोष का स्वप्न था जिसे यथाशीघ्र पूरा करने की बात शांता ने कही। उनके वक्तव्य ने सभी दर्शकों को बेहद भावुक कर दिया।
संतोष शैलजा पर गणमान्य अतिथियों ने अपने संस्मरण और विचार साझा किए। शांता कुमार के सचिव रहे सतीश धर ने संतोष जी की कविताओं पर चर्चा की। वरिष्ठ लेखक, आलोचक और साहित्य इतिहासकार डॉ. सुशील कुमार फुल्ल ने लेखिका की औपन्यासिक यात्रा पर अपने विचारों से कार्यक्रम को समृद्ध किया। संतोष शैलजा के बाल साहित्य पर वरिष्ठ लेखक और संस्कृतिकर्मी डॉ. गौतम शर्मा व्यथित ने अपना वक्तव्य दिया।
कायाकल्प चिकित्सा केंद्र, पालमपुर के डॉ. आशुतोष गुलेरी ने संतोष के योग और सामाजिक जीवन पर अपने अनुभव साझा किए। कार्यक्रम का सफल संचालन पालमपुर से लेखिका और संपादक चंद्रकांता द्वारा किया गया। चंद्रकांता ने आपातकाल के समय संतोष शैलजा और शांता कुमार जी के पत्र व्यवहार पर अपनी बात रखी और उन्हें पत्र-साहित्य की अमूल्य निधि बताया। उन्होंने संतोष द्वारा रचित कविता 'तुम क्या जानो' का पाठ कर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की। कार्यक्रम का समापन करते हुए अकादमी के सचिव डॉ. कर्म सिंह ने सभी अतिथियों को धन्यवाद प्रेषित किया और इस तरह के साहित्यिक आयोजनों को संस्कृति संवर्द्धन की दिशा में अनिवार्य बताया।
संतोष शैलजा का साहित्यिक जीवन
संतोष शैलजा हिंदी साहित्य को समृद्ध करने वाली महत्वपूर्ण महिला लेखिकाओं में है। पंजाब में अमृतसर में जन्मी शैलजा का बचपन वहीं बीता मैट्रिक के पश्चात माता लीलावती और पिता दयाराम के साथ उनका दिल्ली प्रवास आरम्भ हुआ जहां उन्होंने एमए और बीएड तक की शिक्षा प्राप्त की। दिल्ली में ही उन्होंने अध्यापन का कार्य भी किया। 1964 में उनका वैवाहिक गठबंधन शांता कुमार से होने के पश्चात पालमपुर उनका स्थाई निवास बन गया।
संतोष शैलजा को पढ़ने में इतनी अधिक रूचि थी कि उनके मित्र उन्हें 'पुस्तक कीट’ के नाम से पुकारा करते थे। स्वामी विवेकानंद का उनके जीवन पर अमिट प्रभाव पड़ा। उनका प्रथम कहानी संग्रह ‘जौहर के अक्षर’ सन 1966 में प्रकाशित हुआ इस संग्रह में ऐतिहासिक और पौराणिक कथाओं के माध्यम से नारी जीवन के उस पक्ष को उभारा गया है जहां वे सौंदर्य, साहस और त्याग की प्रतिमूर्ति बनकर आती हैं। संतोष शैलजा ने कथाकार, निबंधकार, बाल साहित्यकार और कवयित्री के रूप में साहित्य के विविध रूपों को अपनी ऊर्जावान लेखनी से समृद्ध किया है। उन्होंने ‘पहाड़ बेगाने नहीं होंगे’ और ‘टहालियां’ शीर्षक से भी कहानी संग्रह लिखे। ‘ओ प्रवासी मीत मेरे’ जीवनसाथी शांता कुमार और संतोष शैलजा की कविताओं का संयुक्त संग्रह है जिसमें विरह के क्षणों को शब्दों में पिरोकर उन्होंने विरह को हमेशा के लिये अमर कर दिया।
संतोष शैलजा के लेखन में आदर्शवाद, बलिदान वीरगाथा और राष्ट्रीयता की भरपूर झलक दिखाई पड़ती है। उन्होंने ‘अंगारों में फूल’ नाम से उपन्यास लिखा जो क्रांतिकारी दामोदर, बाल कृष्ण और वासुदेव की वीर गाथा है। उनका एक अन्य उपन्यास ‘कनक छड़ी’ है जिसका कथानक स्त्रियों के इर्द-गिर्द घूमता है जिसमें पंजाब के अंचल की खूबसूरत बुनावट है। उनके उपन्यास ‘सुन मुटियारे’ को महा काव्यात्मक उपन्यास की श्रेणी में रखा जाता है जिसका कथानक विराट फलक पर बुना गया है। उन्होंने निम्मी नाम से एक लघु उपन्यास भी लिखा ‘हिमाचल की लोक कथाएं’ उनकी एक महत्वपूर्ण पुस्तक है जिसमें प्रदेश की मिट्टी और संस्कृति की धानी महक है।