तिब्बती राष्ट्रीय विद्रोह की 63वीं वर्षगांठ के स्मरणोत्सव पर निर्वासित तिब्बती संसद ने वक्तव्य में चीन की दमनकारी नीतियों का विरोध किया है। तिब्बत की आजादी के शहीद हुए हजारों लोगों को याद किया गया और अंतरराष्ट्रीय समुदाय और देशों से आग्रह किया कि तिब्बत के धर्म, संस्कृति व धरोहरों को चीन से बचाया जाए और उन्हें मिटने न दिया जाए। चीन की दमनकारी नीतियों से बचाया जाए। युक्रेन में युद्ध जल्द खत्म होने की कामना की। वहीं परम पावन दलाईलामा की लंबी उम्र की मांगी है।
तिब्बती संसद ने जारी वक्तव्य में कहा कि आज हम 1959 में तिब्बत की राजधानी ल्हासा में हुई एक घटना की 63वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। जब कम्युनिस्ट चीन ने अमानवीय क्रूरता के साथ तीन प्रांतों के दस हजार से अधिक लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। आज उन वीरों और बलिदानियों को भी याद किया। जिन्होंने साहस और दृढ़ संकल्प के साथ अब तक अपने अमूल्य जीवन सहित अपना सब कुछ बलिदान कर दिया है। चीन की दमनकारी सरकार और शासन से उत्पीड़न झेल रहे तिब्बतियों के लिए एकजुटता और सहानुभूति व्यक्त करते हैं।
वही, धर्मशाला में भी भारी संख्या में तिब्बती समुदाय के लोगों ने सड़क पर उतरकर प्रदर्शन किया और चीन की दमनकारी नीतियों के खिलाफ आबाज उठाई। इसके बाद सभी तिब्बतियों ने भारतीय राष्ट्रीयगान भी गाया। और भारत माता की जय के नारे भी लगाए।
यह हुआ था 1949 में
1949 में चीन के जनवादी गणराज्य की स्थापना के साथ चीन की एक नई तथाकथित जन सरकार की स्थापना के तुरंत बाद, तिब्बत पर सशस्त्र आक्रमण की तैयारी शुरू कर दी गई थी। अपने कदम को तिब्बत की शांतिपूर्ण मुक्ति के रूप में घोषित करते हुए, चीन ने अंतरराष्ट्रीय कानून और सम्मेलनों के प्रत्येक प्रावधान का उल्लंघन करते हुए अपने पड़ोसी देश पर सशस्त्र आक्रमण और कब्जा कर लिया। उस समय उस परिस्थिति का दमन ऐसा था जिसमें तिब्बत को दबाव के तहत वर्ष 1951 में तथाकथित “तिब्बत की शांतिपूर्ण मुक्ति के उपायों पर 17-अनुच्छेद समझौते” पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया था। फिर भी, चीन, कब्जे वाली शक्ति , इस तथाकथित 17-सूत्रीय समझौते के प्रत्येक प्रावधान से धीरे-धीरे मुकर गया क्योंकि यह और अधिक दमनकारी होता गया। और इसने तिब्बत में लोकतांत्रिक सुधार जैसे कई दमनकारी नीतिगत उपायों को लागू किया, जो तिब्बत में जमीनी हकीकत के अनुरूप बिल्कुल अजीब थे, और किसी भी तरह से नहीं थे।
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