आजादी के 70 साल बीत जाने के बाद भी कई गांव बुनियादी समस्याओं से जूझ रहे हैं। ऐसा ही एक गांव बिलासपुर जिला के झंडूता के लुरहाड़ गांव का है। इस गांव में लगभग 70 परिवार रहते है। वहीं यहां के लोग गोबिंदसागर झील में एक टापू में आदिवासियों की तरह जीवन जी रहे हैं और यह गांव तीन तरफ से गोबिंदसागर झील से घिरा हुआ है। जिस कारण गांव के लोंगो को बस नाव ही सहारा ही है। वहीं इस गांव के लिए एक थोड़ा सा पैदल रास्ता है जो कि बरसात के कारण में बंद पड़ा है और थोड़ा बचा मार्ग पर दलदल है। लुरहाड़ के ज्यादातर बुजुर्गों ने आज तक बस नहीं देखी। मरीजों को छह किलोमीटर दूर पालकी पर ले जाना पड़ता है। कई मरीज रास्ते में ही दम तोड़ चुके हैं।
आप को बता दे कि यहां के ज्यादातर बुजुर्गों ने आज तक बस नहीं देखी। वहीं मरीजों को छह किलोमीटर दूर पालकी पर ले जाना पड़ता है। कई मरीज रास्ते में ही दम तोड़ चुके हैं। इस गांव के लोग अपनी घर के जरुर पूरी करने के लिए पैदल ढोने को मजबुर है। इस गांव के लोगो का कहना है कि हम अपना घर, जमीन छोड़ यहां बस तो गए, लेकिन किसी भी सरकार ने इनकी ओर ध्यान नहीं दिया।
वहीं इस गांव कि मनशो देवी (85) कहती हैं कि उन्होंने आज तक बस देखी तक नहीं है। उसमें बैठकर सफर करना तो दूर की बात है। कश्मीरी देवी (84) का कहना है कि डर लगता है कि बच्चों से भरी बोट झील में कहीं पलट न जाए। जोगेंद्र पाल (91) ने कहा कि गांव में नेताओं के दर्शन पांच साल में एक दफा ही होते हैं। सुनवाई कोई नहीं करता। शारदा देवी (84) ने कहा कि डैम के लिए ग्रामीणों ने अपनी जमीनें दे दीं, बदले में उन्हें सिर्फ दुश्वारियां ही मिली हैं।
गांव के लिए बरोहा ज्योरिपत्तन की मुख्य सड़क से मुसाहन-लुरहाड़ गांव को संपर्क देने के लिए करीब 6 किमी मार्ग बनाया गया है। मुसाहन से तीन किमी तक यह मार्ग पक्का हो चुका है, लेकिन आगे के तीन किमी पर दलदल के चलते आवाजाही मुश्किल है। गोबिंदसागर झील का जलस्तर बढ़ने से लोगों की मुश्किलें भी बढ़ जाती हैं।
आप को बता दे कि यहां से मरीज को पीठ पर या फिर पालकी में बैठाकर सड़क तक पहुंचाना पड़ता है। सरकार की एंबुलेंस सुविधा तक नहीं मिल पाती है। स्कूल कॉलेज और अन्य कर्मचारियों को भारी परेशानियों से गुजरना पड़ता है। वहीं जब इस क्षेत्र के दुर्गु राम, कांशी राम, दया राम, रतनी देवी, जानकारी देवी, देवकू देवी, देवी राम आदि ने कहा कि ‘अपना सब कुछ भाखड़ा डैम के लिए दे दिया, लेकिन अब हमें पूछने वाला कोई नहीं। वहीं हमें तो आज भी ऐसा लगता है जैसे हम गुलामी का जीवन काट रहे हैं।