हिमाचल प्रदेश के चंबा को शिव भूमि के नाम से भी जाना जाता है। चम्बा से 85 किलो मीटर की दूरी पर बसा है मणिमहेश। माना जाता है कि यहां पर भगवान शिव ने कई बार अपने भक्तों को दर्शन दिए हैं। चंबा मणिमहेश भरमौर जातर का विशेष महत्व है। माना जाता है कि ब्रम्हाणी कुंड में स्नान किए बिना मणिमहेश यात्रा अधूरी है। आदिकाल से प्रचलित मणिमहेश यात्रा कब से शुरू हुई यह तो पता नहीं मगर पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जब मणिमहेश यात्रा पर गुरु गोरखनाथ अपने शिष्यों के साथ जा रहे थे तो भरमौर तत्कालीन ब्रम्हापुर में रुके थे।
ब्रम्हापुर जिसे माता ब्रम्हाणी का निवास स्थान माना जाता था मगर गुरु गोरखनाथ अपने नाथों एवं चौरासी सिद्धों सहित यहीं रुकने का मन बना चुके थे। वे भगवान भोलेनाथ की अनुमति से यहां रुक गए मगर जब माता ब्रम्हाणी अपने भ्रमण से वापस लौटीं तो अपने निवास स्थान पर नंगे सिद्धों को देख कर आग बबूला हो गईं। भगवान भोलेनाथ के आग्रह करने के बाद ही माता ने उन्हें रात्रि विश्राम की अनुमति दी और स्वयं यहां से 3 किलोमीटर ऊपर साहर नामक स्थान पर चली गईं।
जहां से उन्हें नंगे सिद्ध नजर न आएं मगर सुबह जब माता वापस आईं तो देखा कि सभी नाथ और चौरासी सिद्ध वहां लिंग का रूप धारण कर चुके थे जो आज भी इस चौरासी मंदिर परिसर में विराजमान हैं। यह स्थान चौरासी सिद्धों की तपोस्थली बन गया, इसलिए इसे चौरासी कहा जाता है। गुस्से से आग बबूला माता ब्रम्हाणी शिवजी भगवान के आश्वासन के बाद ही शांत हुईं।
भगवान शंकर के ही कहने पर माता ब्रम्हाणी नए स्थान पर रहने को तैयार हुईं तथा भगवान शंकर ने उन्हें आश्वासन दिया कि जो भी मणिमहेश यात्री पहले ब्रम्हाणी कुंड में स्नान नहीं करेगा उसकी यात्रा पूरी नहीं मानी जाएगी। यानी मणिमहेश जाने वाले प्रत्येक यात्री को पहले ब्रम्हाणी कुंड में स्नान करना होगा, उसके बाद ही मणिमहेश की डल झील में स्नान करने के बाद उसकी यात्रा संपूर्ण मानी जाती है। ऐसी मान्यता सदियों से प्रचलित है।
इस वर्ष इस पवित्र यात्रा का छोटा स्नान कृष्णअष्टमी आज यानी 2 सिंतबर को तथा मुख्य एवं बड़ा स्नान उसके 15 दिन बाद राधाष्टमी पर होगा। यात्रा पूरी तरह से मणिमहेश यात्रा ट्रस्ट के अधीन हो रही है। हड़सर से 13 किलोमीटर की कठिन चढ़ाई एवं समुद्र तल से 13500 फुट की ऊंचाई पर स्थित मणिमहेश की डल झील एवं कैलाश दर्शन में भोलेनाथ के प्रति लोगों में इतनी श्रद्धा बढ़ गई है कि मौसम एवं कड़ाके की शीतलहर के बावजूद लाखों की संख्या में शिव भक्त यहां आते हैं।
ये यात्रा तीन चरणों में होती थी। पहली यात्रा रक्षा बंधन पर होती थी। इसमें साधु संत जाते थे। दूसरा चरण भगवान श्री कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर किया जाता था जिसमें जम्मू काशमीर के भद्रवाह , भलेस के लोग यात्रा करते थे। ये सैंकड़ों किलो मीटर की यात्रा पैदल ही अपने बच्चों सहित करते हैं। तीसरा चरण दुर्गाअष्टमी या राधा अष्टमी को किया जाता है जिसे राजाओं के समय से मान्यता प्राप्त है।
अब प्रदेश सरकार ने भी इसे मान्यता प्रदान की है। मणिमहेश कैलाश की उंचाई 18654 फुट की है जबकि मणिमहेश झील की उंचाई 13200 फुट की है। लोग मनीमहेश झील में स्नान करने के बाद अपनी अपनी श्रद्धा के अनुसार कैलाश पर्वत को देखते हुए नारियल व अन्य सामान अर्पित करते हैं।
गांव हड़सर से चलने के बाद यात्रियों को एक स्नान धनछो जल प्रपात में करना चाहिये। इसकी कहानी कही जाती है कि जब भस्मासुर भगवान शिव के सिर पर हाथ रख कर उन्हें भष्म करने के लिए प्रयास कर रहा था उस समय भगवान शिव इस जल प्रपात के अंदर छिप गये थे। काफी लंबे समय तक वो यहीं पर रहे। धनछो के आगे दो रास्ते हो जाते हैं, बांदर घाटी और भैरो घाटी।
इन रास्तों पर कुछ दूर चलने के बाद हवा में आक्सीजन की कमी होनी आरंभ हो जाती है। यात्रियों को आगे की यात्रा आक्सीजन सिलेंडर के साथ करनी पड़ती है। यहां से कुछ दूर चलने के बाद गौरीकुंड आता है। गौरीकुंड में महिलाएं स्नान करती हैं। गौरी कुंड के बाद शिवकलौत्री नामक स्थान आता है सीधे कैलाश से पानी निकल कर आता है यहां पर भी स्नान करने का विधान है ।
पानी बर्फ की तरह ठंडा होता है फिर भी श्रद्धालु स्नान करते हैं। गौरी कुंड के बाद पाप पुण्य का पुल आता है। गौरीकुंड से लेकर आगे तक बहुत से लंगर लगे होते हैं यहां पर हजारों यात्रियों के ठहरने का प्रबंध भी रहता है।इसके आगे एक आध घंटे की यात्रा कर यात्री उपर मनीमहेश झील पर पंहुच जाते हैं।
हिमाचल प्रदेश के पर्यटन विभाग ने इस जगह पर यात्रियों के ठहरने के लिए टेंट लगाए होते हैं। कुछ दूरी पर हैलिकाप्टर के आने जाने का क्रम भी लगा रहता है । बहुत ही सुंदर प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर नजारा देखने को मिलता है। मणिमहेश यात्रा में इस बार सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए गए हैं।