हिमाचल प्रदेश में रक्षाबंधन पर्व से लेकर जन्माष्टमी तक गुग्गा जाहरवीर का गुणगान किया जाता है। गुग्गा जाहरवीर के छत्र को लेकर एक टोली के रूप में गांव के घर-घर जाकर गुग्गा की गाथा को सुनाया जाता है। माना जाता है कि गुग्गा की गाथा सुनने से लोगों के जीवन में सुख समृद्धि आती है। इस दौरान लोग श्रद्धा से उनकी छतरी पर डोरियां, चूड़ियां, श्रृंगार का सामान, कपड़े बांध कर मंगल कामना करते हैं। गोगाजी का जन्म राजस्थान के ददरेवा चौहान वंश के शासक जेवरसिंह की पत्नी बाछल के गर्भ से हुआ था।
गाथा के मुताबिक़ गोगाजी की मां बाछल देवी निःसंतान थी। संतान सुख की प्राप्ति के लिए बाछल ने "गोगामेडी" की पहाड़ी पर तपस्या कर रहे गुरू गोरखनाथ की शरण ली थी। गुरू गोरखनाथ ने ही बाछल को पुत्र रत्न की प्राप्ति के लिए " गुगल" नामक फल प्रसाद के रूप में दिया था। इस वर्दान से बाछल देवी गर्भवती हुई व गोगाजी का जन्म हुआ। गुगल फल के नाम से इनका नाम गुग्गामल पड़ा। गुरु गोरखनाथ के वरदान से भादो सुदी नवमी को हुआ था। गुरू गोरखनाथ के आशीर्वाद से राजा गुग्गामल महा-वीर, नागों को वश में करने वाले तथा सिद्धों के शिरोमणि हुए।
गुग्गा जी की मन्त्र शक्ति के प्रभाव से वासुकी जैसे महानाग के विष का प्रभाव भी शांत हो गया था। कहते हैं इनकी कथा सुनने से सभी प्रकार के कष्टों से मुक्ति मिलती है। साथ ही सर्पभय से भी मुक्ति मिलती है। हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मो के लोग गुग्गा जी को पूजते है। हिंदू धर्म के लोग गूगा (को चौहान या वीर के रूप में पूजते हैं जबकि मुस्लिम गूगा जाहर पीर के रूप में पूजते है। ऐसा भी माना जाता है कि एक ग्वाले के डंडा मारने से गूगा के शरीर का जो भाग धरती में धंस गया उसे हिंदुओं ने लखदाता के रूप में पूजना शुरू किया जबकि जो शरीर बाहर रह गया वह मुस्लिमों के लिए जाहर पीर बन गए। उनकी अपार शक्तियों की बदौलत ही गुग्गा जी दोनों धर्मों के प्रिय हो गए।