एक बार फिर भारत अपनी आजादी की 74वीं वर्षगांठ मना रहा है। 15 अगस्त 1947 से लेकर आज तक 73 वर्ष बीत गए पर आज जहां हम रह रहे हैं। क्या ये वही भारत है जो शहीदों के रोम-रोम औऱ प्राण आत्मा में भारत बसता था? जिस भारत माता की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए विदेशी आक्रांताओं से लड़ते हुए बलिदानियों ने अपने जीवन की बाजी लगा दी थी? वंदे मातरम का उद्धगोष करते भारत मां की जयकार करते -करते ना जाने कितने ही शहीदों ने हंसते-हंसते स्वतंत्रता की बलिवेदी पर अपने प्राण न्योछावर कर दिए।
लेकिन भारत माता की गरिम एवं महिमा पर बट्टा नहीं लगने दिया। उनके जेहन में फांसी का फंदा कालापानी और अमानवीय यातनाएं सब उस मंजिले मकसूद के सामने तुच्छ थी। लंबे संघर्ष के बाद मिला क्या विभाजन की बहुत बड़ी कीमत चुकाकर 15 अगस्त 1947 को भारत को राजनीतिक दासता से मुक्ति तो मिली। लाखों-करोड़ों जिंदगियां तबाह हो गई। इससे भी बढ़कर देश और देशवासियों को गहरा धक्का उस वक्त लगा जब उन्होंने महसूस किया की स्वतंत्रता भारत जो उनके जेहन में था वह कहीं पीछे छूट गया है।
लगभग एक शताब्दी के सतत संघर्ष और बहुमूल्य बलिदानों की बदौलत 15 अगस्त 1947 को भारत को अंग्रेजी दासता से मुक्ति मिली। कितना खून इस क्रांति यज्ञ की भेंट चढ़ गया। कितने ही शीश स्वतंत्रता की देवी को अर्पित किए गए। काले पानी की कालकोठरी में देश के असंख्य जवानों को भयानक यात्राएं देकर फांसी पर लटका दिया गया।
यह भी निर्विवाद सत्य है की आजादी के पथ पर बहुत बड़ा समूह सत्याग्रह अहिंसा के मार्ग पर चला और बहुत बड़ा आंदोलन खड़ा किया। लेकिन यह कहना कि बिना खड़ग, बिना ढाल, रक्त की एक बूंद गिराए बिना भारत माता आजाद हो गई। उन हुतात्माओं की शहादत के प्रति बेमानी होगा जिन्होंने राष्ट्र की आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया और सरफरोशी की तमन्ना दिल में लिए बाजुओं की जोर आजमाइश करते हुए शहीद हो गए।
लेकिन आज हम उन शहीदों की शहादत को कितना याद कर पा रहे हैं यह भी किसी से छिपा नहीं है। 33 करोड़ भारतीयों का देश 1 सौ 37 करोड़ मनुष्यों का देश हो गया। 1947 में क्षत विक्षित ही सही आजादी तो मिली। धीरे-धीरे वह भी महाप्रयाण करते गए जिन्होंने स्वतंत्र यज्ञ में अपना सर्वस्व होम किया। मंजिले उन्हें मिली जो शरीक़े सफर न थे।