हिमाचल प्रदेश में माननीय उच्त्तम न्यायालय द्वारा अस्थाई तौर पर वृक्षों के कटान पर प्रतिबन्ध लगाया गया है। अगर यह प्रतिबन्ध स्थाई तौर पर लग जाता है तो आने वाले समय मे प्रदेश के विकास की गति पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। यूं कहिए कि विकास की गति ही रुक जाएगी।
हिमाचल हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता आई.डी बाली ने कहा कि हिमाचल सरकार को इस विषय को गंभीरता से लेना चाहिए और सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष दृढ़ता से अपना पक्ष रखते हुए न्यायालय को वस्तु स्थिति से अवगत कराया जाना चाहिए। वस्तु स्थिति यह है कि 1985 के बाद हिमाचल प्रदेश में हरे वृक्षों के काटने पर सरकार ने पूर्ण प्रतिबंध लगा रखा है वृक्ष केवल उसी जगह से काटे जाते है जहां वृक्षों का काटना विकासात्मक कार्यों के लिए अनिवार्य होता है।
इस प्रतिबंध के कारण 1985 के बाद वृक्ष काटे ही नहीं गए और जो भी वृक्ष काटे गए उनका काटना इसलिए अनिवार्य था क्यूंकि ऐसे वृक्षों को काटे बगैर सड़कों को बनाना संभव नहीं था। हिमाचल प्रदेश की लगभग 80% आबादी गांव में रहती है। अभी ऐसी भी जगहें हैं जहां सड़क तक पहुंचने के लिए लोगों को कई किलोमीटर पैदल चलना होता है। क्या वह लोग ऐसी ही सुविधा के हकदार नहीं हैं जो सुविधाएं शहर में रह रहे लोगों को मिल रही हैं।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय का मानना है कि हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है कि उसे अपने घर से नज़दीक से नज़दीक सड़क एवं यातायात की सुविधा प्राप्त हो। हिमाचल प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री डॉ. वाई. एस. परमार कहा करते थे की सड़के हमारी भाग्य रेखाएं हैं जब तक हमारे यहां सड़कें नहीं बनती तब तक विकास संभव नहीं है। आज यदि हिमाचल का विकास हुआ है तो उसमे सड़कों की एहम भूमिका है। आजादी से पहले भी नियंत्रित रूप से जंगलों में वृक्षों का कटान किया जाता था लेकिन जंगलों को बचाने का काम उससे भी कई गुना तेज गति से होता था। जंगलों में बड़े पैमाने पर पौधे लगाए जाते थे और नए लगाए गए पौधों की पूरी हिफाज़त की जाती थी और जंगल बढ़ते ही जाते थे।
आज भी हर वर्ष बड़े पैमाने पर सरकार द्वारा जंगलो में नए पौधों का आरोपण किया जाता है जबकि पौधों का कटान केवल सड़कें आदि बनाने के लिए ही किया जाता है। इसलिए यह भ्रांति नहीं होनी चाहिए कि पौधों का कटान ही हो रहा है जबकि वस्तुस्तिथि बिल्कुल विपरीत है जितने पेड़ कटते हैं उससे सैंकड़ो गुणा ज्यादा पौधे हर साल वन विभाग के द्वार लगाए जाते हैं।