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कुदरत की लंका जो हमने लगाई है, अब उसी की सज़ा सूद समेत पाई है…

समाचार फर्स्ट डेस्क |

सीधी सी बात है। आप प्रकृति के साथ रंगबाजी नहीं कर सकते। उसके साथ छेड़छखानी आपोक भारी परिणाम भुगतने पर मज़बूर कर देगी। हिमाचल में जो आसमान से आफ़त बरसी है और उसके बाद के भीषण आपदा में जानोमाल की क्षति पहुंची है…उसमें कहीं ना कहीं हमारी ही ग़लती या भूल शामिल है। मसलन, प्रकृति ने हर चीज का चेक एंड बैलेंस बनाया हुआ है और हम उसी चेक एंड बैलेंस से खिलवाड़ कर बैठते हैं। पुराने जमाने में भी लैंड-स्लाइडिंग और भारी बारिश हुआ करती थी। लेकिन, आपदाओं का रूप इतना भीषण नहीं होता था। कारण यह कि उस वक़्त हम अवैध निर्माण, बिना मानक के विस्फोटकों का इस्तेमाल, घने पेड़ों के जंगल और घांस के मैदानों को खत्म नहीं करते थे। आज के आधुनिकता के बहाव में हमने सभी मानकों को धत्ता बता दिया है। और कहना यह ग़लत नहीं होगा कि इसमें अलग-अलग सरकारों का भी विशेष योगदान रहा है।

आधारभूत विकास के नाम पर प्रकृति का बंदरबांट हुआ। बिना वैज्ञानिक विधि और प्राकृतिक शोध के निर्माण और तोड़-फोड़ को हरी झंडी दी गई। वैज्ञानिकों के सुझावों के उलट रेवड़ियों की तरह जंगलों और पहाड़ों का बंदरबांट हुआ। अवैध क्रशर और खनन ने तो पूरा सत्यानाश कर दिया। अब जब हम विनाश के मुहाने पर खड़ें है तो ऊपर वाले को दोष दे रहे हैं।

समाचार फर्स्ट ने पहाड़ों में आ रहीं आपदाओं और इनसे होने वाले नुकसान पर जानकारों के सुझाव लिए। सभी सुधिजनों का एक मत है कि सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर पहाड़ों के साथ काफी ज्याद्ती की गई है। किसी ने भी प्रकृति का ख्याल नहीं किया बल्कि अवैज्ञानिक विधि से निर्माण-कार्य किए और खुद की ही क़ब्र खोद ली। भारतीय वानिकी अनुसंधान परिषद के पूर्व डायरेक्टर जनरल अश्वनी शर्मा ने वर्तमान तबाही के मुख्य तीन कारण गिनाए हैं. इनमें,

  1. सड़कों के निर्माण में बिना मानक के विस्फोटकों का इस्तेमाल
  2. गहरी जड़ों वाले वृक्षों का कटान
  3. क्लाइमेट चेंज

अब हम आपको एक्सपर्ट अश्वनी शर्मा के पेश किए गए तथ्यों पर विस्तार से जानकारी देते हैं। आपको पता चल जाएगा कि किस तरह से पहाड़ी इलाकों में हमने आफ़तों को न्यौता दिया है….

निर्माण कार्यों में विस्फोटकों का इस्तेमाल

पहाड़ी राज्यों में और ख़ासकर हिमाचल की बात करें तो यहां पर सड़क और दूसरे निर्माण कार्यों में पहाड़ों को तोड़ा जा रहा है। कई मर्तबा विस्फोटकों का इस्तेमाल मानक के विपरीत होता है। जब पहाड़ों में विस्फोट किया जाता है। तो उनके बीच मौजूद पहले से रिक्त स्थान काफी चौड़े हो जाते हैं। इसके बाद जो बारिश होती है। उससे पानी रिसकर चट्टानों को कमजोर बना देते हैं। ऐसे में लैंड-स्लाइडिंग का ख़तरा बहुत ज्यादा हो जाता है।

अवैध खनन
भ्रष्टाचार का आलम यह है कि अवैध खनन का कारोबार रुकने का नाम नहीं लेता। इसमें सरकारी और गैर-सरकारी तंत्रों की मिली-भगत ऐसी होती है कि पैसों के लिए प्रकृति की चिंता भला कौन करे। अक्सर अवैध खनन से भी पहाड़ कमज़ोर पड़ते हैं और आस-पड़ोस के गांव इसकी सज़ा भुगतते हैं। क्योंकि, गैर-कानूनी खनन में किसी भी मानक का इस्तेमाल नहीं होता। पहाड़ तोड़ने की जिद होती है, लिहाजा पूरे अवैज्ञानिक ढंग से इसे तोड़ा जाता है।

गहरी जड़ों वाले वृक्षों का कटान
हमारे विशेषज्ञ अश्वनी शर्मा के मुताबिक गहरी जड़ों वाले पेंड़ जमीन को जकड़ के रखते हैं। इनके अलावा घांस और बांस के वृक्ष भी मिट्टी के कटान को रोके रखते हैं। लिहाजा, जिन इलाकों में इनकी कमी है वहां पर भू-स्खलन का ख़तरा ज्यादा रहता है। गौर करने वाली बात यह है कि हिमाचल के अधिकांश इलाकों में गहरी जड़ों वाले पेड़ों का डिफॉरेस्टेशन हुआ है। इसके अलावा उनकी जगह कमजोर जड़ों वाले पेड़ों को लगा दिया गया। ऐसे में मिट्टी की संगठनात्मक क्षमता तितर-बितर हो गई। ऐसे में ल्हासा गिरने का चांस तो बढ़ेंगे ही।

जंगलों की आग
जंगलों में आग भी एक बड़ी वजह है। जब जंगलों में आग लगाई जाती है तो मिट्टी जल जाती है और उसकी परतों में पकड़ कमजोर हो जाती है। उदाहरण के तौर पर जब ईंट को आंग में पकाया जाता है तो वह सख्त होता है लेकिन एक झटके में टूटने पर बिखराव काफी होता है। लिहाजा, जंगलों में आग की वजह से मिट्टी की शक्ति भी कमजोर पड़ जाती है।

क्लाइमेट चेंज
वर्तमान में क्लाइमेट चेंज की समस्या वैश्विक स्तर पर हावी है। विश्व के तमाम देश इससे पार पाने की जुगत लगा रहे हैं। हमने विकास के नाम पर ऐसे कई तंत्र स्थापित कर लिए हैं जिनसे प्रकृति का कोई तालमेल नहीं है। यही वजह है कि बीते कुछ दशकों में बादल फटने की घटनाओं में इजाफा हुआ है। ग्लोबाल वॉर्मिंग का असर है कि पहाड़ों के कई ग्लेशियर पिघल चुके हैं। लिहाजा आपदाओं के लिए यह भी एक अहम कारण हैं।

सरकारी स्तर पर इच्छा-शक्ति की कमी
ऐसा नहीं है कि हम इन मसलों को हल नहीं कर सकते। हम प्राकृतिक आपदाओं पर फुल-स्टॉप तो नहीं लगा सकते। लेकिन, इससे बचने के तरीके निकाल सकते हैं। चीन और लैटिन अमेरिका के कुछ देशों ने पहाड़ी आपदाओं से काफी निजात हासिल की है। लेकिन, इसके लिए सरकारी और नागरिक स्तर पर मजबूत इच्छा शक्ति होनी चाहिए। सरकारी स्तर पर बजट का सही समय पर आंवटन बेहद जरूरी है। उदाहरण के तौर पर जब जंगलों में आग लगने का टाइम आता है, तब उसे जारी करते-करते मॉनसून का वक़्त शुरू हो जाता है। ऐसे ही हर मौसम की अपनी दिक्कतें है। उसे देखते हुए सरकारी स्तर पर टीमों को गठित करना होगा और सही ट्रेनिंग के जरिए स्पेशल मैनेजमेंट टीम तैयार रखनी होगी। जिसमें आपात स्थिति से निपटने की सारी कुव्वत मौजूद रहे।

पीडब्ल्यूडी, फॉरेस्ट और खनन से संबंधित विभागों को खास तौर पर मुस्तैदी दिखानी होगी। इसके अलावा नागरिकों को भी अपनी तरफ से विशेष सतर्क रहना होगा। खुद ही अवैध निर्माण को बल ना दें। गाइडलाइंस के मुताबिक अपने निर्माण को अंजाम दें। डेंजर जोन या नदियों के बहाव क्षेत्र में निर्माण से दूरी बना कर रखें। साथ ही अगर ऊपर जिक्र की गई बातों का ख्याल रखा गया तो शायद हम प्रकृति के कोप से खुद को बचा सकें।

( अगर आपके पास कोई वैज्ञानिक सुझाव हो तो कृपया इसकी जानकारी कॉमेटं बॉक्स में दें. हमारी कोशिश है कि हम इस मुद्दे पर सरकार को बेहतर सुझाव दें और उनकी चुनौतियों को आसान बनाएं। साथ ही यह ख़बर मुनासिब लगे तो बाकी लोगों के साथ भी शेयर करें— )