जिला कुल्लू के लिए शनिवार का दिन जिला में बुरी खबर लेकर आया। लगघाटी से संबंध रखने वाले नवल ठाकुर 98 ने अपने पैतृक गांव भुट्ठी में अंतिम सांस ली। इसके साथ ही घाटी भी शोकाकुल हो गई है। नवल ठाकुर का नाम एक शख्सियत के तौर पर जाना जाता था। उन्होंने अपने जीवन में 16 चुनाव लड़े और सभी में उन्हें शिकस्त मिली। उन्होंने 12 विधानसभा चुनाव और चार लोकसभा चुनाव भी लड़े। 98 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ। आज से करीब 2 साल पूर्व तक वे 8 किलोमीटर का फासला तय करते हुए कुल्लू पहुंचते थे। कुल्लू पहुंचकर सबसे पहले वे जिला पुस्तकालय में समाचार पढ़ते थे और फिर पैदल ही घर पहुंचते थे। उम्र के इस पड़ाव पर पहुंचकर भी वे फिट थे।
नवल ठाकुर की घाटी में एक खासी पहचान भी थी। किसी मुद्दे को लेकर वे मुखरित भी होते थे, जो जनमानस के खिलाफ हो। गरीबों की लड़ाई में वे अग्रिम पांत में रहते थे। उन्होंने हिमाचल निर्माता डॉ यशवंत सिंह परमार के साथ कई आंदोलनों में भाग भी लिया था। ऐसे में परमार के साथ उनकी घनिष्ठता भी थी। हर चुनावों में वे आजाद प्रत्याशी के तौर पर हिस्सा लेते थे। सियायत में उन्होंने वर्ष 1957 में कदम रखा और पहला चुनाव भी लड़ा, जबकि अंतिम चुनाव वर्ष 1991 में लड़ा। घाटी में 98 वर्ष के नवल ठाकुर की एक खासी पहचान भी थी। किसी मुद्दे को लेकर वे मुखरित भी होते थे, जो जनमानस के खिलाफ हो। गरीबों की लड़ाई में वे अग्रिम पांत में रहते थे। उन्होंने हिमाचल निर्माता डॉ यशवंत सिंह परमार के साथ कई आंदोलनों में भाग भी लिया था। ऐसे में परमार के साथ उनकी घनिष्ठता भी थी। हर चुनावों में वे आजाद प्रत्याशी के तौर पर हिस्सा लेते थे।
सियायत में उन्होंने वर्ष 1957 में कदम रखा और पहला चुनाव भी लड़ा, जबकि अंतिम चुनाव वर्ष 1991 में लड़ा।कहते हैं राजनीति में भाग्य भी कई मर्तबा साथ नहीं देता और कुछ वोटों से ही प्रत्याशी शिकस्त खा बैठता है। नवल ठाकुर के साथ भी ऐसा ही हुआ। वर्ष 1962 में भी वे लाल चंद प्रार्थी से हार गए थे, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और फिर से भाग्य आजमाने की ठान ली। वर्ष 1967 के विधानसभा चुनाव में नवल के पक्ष में खासी लहर थी, लेकिन अंत समय पर वे 300 के करीब वोटों से हार बैठे। यह हार उन्हें कैबिनेट मंत्री और 'कुलूत देश की कहानी' पुस्तक के लेखक लाल चंद प्रार्थी से मिली थी।
नवल ठाकुर ने पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के खिलाफ भी लोकसभा चुनाव लड़े और हार गए, लेकिन इसमें भी वे दूसरे पायदान पर रहे। घाटी के लोग बताते हैं कि लीक से हटकर काम करते थे और जो मन में ठान लेते थे, उसे पूरा करने के लिए घर से अकेले ही निकल पड़ते थे। इसी का नतीजा रहा कि वे वर्ष 1964 में दिन के समय ही उपायुक्त कार्यालय में जलती मशाल लेकर पहुंचे थे। जब तत्कालीन उपायुक्त ने उनसे कारण पूछा था तो उन्होंने एकटक उत्तर दिया था कि अंधेरे को मिटाने के लिए मशालों का सहारा लिया है, ताकि मजदूरों की हालत से प्रशासन वाकिफ हो सके। उनमें उस समय नाराजगी थी कि मजदूरों को को वेतन नहीं मिल पा रहा था। मजदूरों का कुनबा भी उनके साथ ही था। ऐसे में श्रमिकों के बीच में उनकी खासी पहचान भी थी। वे कार्यक्रमों में अपने आप को जवान और युवा कहते थे।