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दफ़्तरों के बोझ तले दब गई पर्यटन नगरी शिमला

पी. चंद, शिमला |

अंग्रेजों द्वारा बनाई गई पहाड़ों की रानी शिमला अब दफ्तरों के बोझ तले दब चुकी है। अंग्रेज़ो ने मैदानी इलाकों की धूल मिट्टी से बचने के लिए पहाड़ों की रानी शिमला को देश की दूसरी राजधानी बनाया था। लेकिन आज़ादी के बाद हिमाचल के अस्तित्व में आने के बाद अधिकतर दफ़्तर ही शिमला में बेतरतीब ढंग से खोल दिए। कई दफ़्तर तो ऐसे है जो प्रदेश के किसी भी जिले में खोले जा सकते थे। ताकि राजधानी में तंग होती सड़कें, घटती जमीन, बढ़ती आबादी, सड़कों पर जाम, जिससे आम आदमी परेशान है। उससे निज़ात मिल जाती। लेकिन अब तक इसका उल्टा ही होता रहा है।

कुमार हाउस में बिजली बोर्ड का दफ़्तर राज्य के किसी भी हिस्से से संचालित हो सकता है। उद्यान विभाग का दफ़्तर सेब बहुल क्षेत्र में बन सकता था व अभी भी बदला जा सकता है। एसजेबीएनएल का दफ़्तर भी किन्नौर या अन्य जिले में बनाया जा सकता था। इसी तरह बागवानी, खाद्य आपूर्ति, कृषि, जनजातीय, ग्रामीण विकास जैसे बड़े विभाग शिमला से क्यों नही बदले जाते है। यदि शिक्षा बोर्ड, कृषि विश्वविद्यालय, हॉर्टिकल्चर और फॉरेस्ट्री विश्वविद्यालय शिमला से बाहर स्थापित हो सकते हैं तो अन्य दफ़्तर क्यों नहीं?

क्योंकि इन दफ़्तरों में हज़ारों कर्मचारी कार्यरत हैं। उनके लिए घर, पार्किंग और अन्य सुविधाओं को प्रदान करने में पहाड़ों की रानी शिमला असमर्थ हो गई है। सबसे बड़ी कमी राजनीतिक इच्छाशक्ति की है क्योंकि यदि विधानसभा धर्मशाला में स्थापित हो सकती है तो उस जगह का सदुपयोग क्यों नही किया जा रहा है। पर्यटन नगरी शिमला लो बचाए रखना है तो अब समय आ गया है कि ऊपरी हिमाचल व निचले हिमाचल की तुच्छ मानसिकता को त्यागकर कड़े फ़ैसले लेंगे पड़ेंगे।