विवेक अविनाशी।। हिमाचल प्रदेश की भारतीय जनता पार्टी सरकार ने राज्य की हाइड्रो पावर पॉलिसी में संशोधन कर आवंटित बिजली परियोजनाओं को पहले 12 वर्ष तक मुफ्त विद्युत उत्पादन की स्वीकृति दी है। प्रदेश सरकार का दावा है इस निर्णय से हिमाचल में पिछले एक दशक से लटकी हुई 5100 मेगावाट की 737 बाधित परियोजनाओं की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा और प्रदेश में 70,000 करोड़ रूपये का निजी निवेश भी होगा।
हिमाचल प्रदेश में इससे पूर्व 12 साल तक विद्युत उत्पादन पर 12 प्रतिशत रॉयल्टी सरकार को देने का प्रावधान था। इस निर्णय से सरकार को बिजली परियोजनाओं से तत्काल मिलने वाली रॉयलटी से वंचित होना पड़ेगा। इस निर्णय का लाभ विद्युत उत्पादकों को उस वक्त मिलना शुरू होगा जब परियोजना में बिजली बननी प्रारम्भ होगी।
हिमाचल प्रदेश की नदियों में बहने वाले 'तरल सोने' से इस पहाड़ी राज्य की आय बढ़ाने का विचार नौवें दशक से प्रारंभ हुआ, जब प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री शांता कुमार ने हिमाचल में स्थापित जलविद्युत परियोजनाओं में 12 प्रतिशत रॉयल्टी का मामला केंद्र से उठाया था और काफ़ी जद्दोजहद के बाद केंद्र ने यह मांग स्वीकार कर ली थी। इसके साथ ही जलविद्युत परियोजनाओं में निजी निवेश का पहली बार राज्य में पर्दार्पण भी उसी समय हुआ।
प्रदेश की नदियों में जल विद्युत क्षमता का आकलन समय-समय पर किया जाता रहा है। एक आकलन के अनुसार, हिमाचल की नदियों की जल-विद्युत क्षमता का यदि समुचित दोहन किया जाए तो देश की 25 प्रतिशत उर्जा ख़पत हिमाचल से ही पूरी हो सकती है। हिमाचल इस समय केवल 52.6 प्रतिशत क्षमता पर ही कार्य हो रहा है। प्रदेश में स्थापित जल विद्युत परियोजनाओं के संचालन में केवल 16 निजी निवेशक ही कार्यरत हैं।
वास्तव में हिमाचल प्रदेश में लघु जल- विद्युत परियोजनाओं में निवेश करने वाले निवेशकों के समक्ष समस्या केवल रॉयल्टी को लेकर नहीं है। सबसे बड़ी समस्या केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय से अनापति प्रमाण पत्र प्राप्त करने की है। इसके कारण परियोजना निर्माण कार्य में अनावश्यक विलंब होता है और परियोजना निर्माण की लागत में भी अप्रत्याशित वृद्धि होती है। एक परियोजना को ये सब प्रमाण पत्र लेने में 2-5 वर्ष तक लग जाते हैं, जबकि अत्याधुनिक मशीनरी से लैस 2 मेगावॉट परियोजना को पूरा होने में 12-16 महिने लगते हैं।
हिमाचल प्रदेश में परियोजनाओं की स्थापना के लिए सबसे बड़ी कठिनाई भूमि-अधिग्रहण को लेकर आती है। परियोजना स्थल पर जितनी भी सरकारी भूमि है उसे वन-भूमि घोषित किया गया है, जिसे अधिग्रहण करने के लिए पर्यावरण मंत्रालय की अनुमति लेनी पड़ती है। इसके अतिरिक्त गांव की भूमि के अधिग्रहण को लेकर भी ग्राम- पंचायतें और गांव वासी भी कोई सकारात्मक रवैया नहीं अपनाते।
सबसे बड़ी बात यह कि जल-विद्युत परियोजनों में उत्पादित बिजली का मूल्य भी अभी तक पुराने ही दरों पर यानी 3 रूपये 17 पैसे की दर से मिलता है जो प्रतिस्पर्धा बाजार में बहुत कम है। परियोजना बाहुल्य क्षेत्र में केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय के नोडल कार्यालय की स्थापना का प्रस्ताव भी इसी दिशा में कारगर सिद्ध हो सकता है। सिंगलविंडो क्लीयरेंस की अवधारण भी इस दिशा में कारगर सिद्ध हो सकती है। प्रदेश सरकार को 2200 मेगावाट की 300 नई परियोजनाएं आवंटित करने से पूर्व इन समस्याओं पर गंभीरता से विचार करना चाहिए तभी इस क्षेत्र में छोटे निवेशक आकर्षित हो पायेंगे।
(विवेक अविनाशी एक जाने माने स्तंभकार हैं। हिमाचल की राजनीतिक घटनाक्रमों पर उनकी टिप्पणियां हमेशा प्रकाश में आती रहती हैं…)