अमृत तिवारी।।
शिमला में जनता पानी के लिए बेहाल है। ढेरों परिवार ऐसे भी हैं जिन्हें 8 दिनों तक पानी नसीब नहीं हुआ। शहर और आसपास के गावों में जल-संकट इस कदर हावी है कि जनता त्राहिमाम बोल चुकी है। हर जगह पानी को लेकर प्रदर्शन देखने को मिल रहा है। लेकिन, सवाल उठता है कि आखिर क्या यह मुसीबत रातों-रात खड़ी हो गई? अगर मसला चंद दिनों का नहीं है तो जल-संकट को लेकर पहले से तैयारी क्यों नहीं की गई?
शिमला में जल-संकट कोई नई बात नहीं है। पानी की परेशानी से पहले भी लोग दो-चार होते रहे हैं। दूषित पानी से जानें जाती रही हैं। लेकिन, जो आज के हालात हैं वह भविष्य के ख़तरनाक दौर की तरफ इशारा कर रहे हैं।
दरअसल, पानी के संकट को लेकर आला स्तर पर कई बैठकें हो चुकी हैं। लेकिन, सरकारों के टालने वाले रवैये ने सब सत्यानाश कर दिया है। शिमलावासियों के लिए पानी की समूचित व्यवस्था हो इस पर तो अनेकों बार बात चली। लेकिन, टेबल पर वार्ता चाय-पानी के साथ खत्म हो गई।
आज हालात ऐसे हैं कि खुद माननीय हाईकोर्ट को इसमें दखल देना पड़ा है। क्योंकि, एक तो पानी कि किल्लत और ऊपर से इसके वितरण में भी धांधली। समाज का नीचला तबका पानी से वंचित रह रहा है। आरोप लगे कि पानी की बड़ी खेप रातों-रात बड़े नेताओं और अधिकारियों के घरों में टैंकर के जरिए पहुंचा दिया जा रहा है। ऐसे में कोर्ट को सख्त लहजे में निर्देश देना पड़ा कि राज्यपाल और मुख्यमंत्री को छोड़ किसी भी वीवीआईपी को टैंकर से पानी नहीं मुहैया कराया जाएगा। कोर्ट ने आम शहरी को पानी मुहैया कराने की जिम्मेदारी भी सुनिश्चित की है।
हालांकि, इस मामले को व्यापक स्तर पर देखने की जरूरत है। क्योंकि, अगर इस मसले को सिर्फ आज के नज़रिए से देखेंगे तो समाधान बिल्कुल नहीं मिलेगा। जल-संकट का असली खलनायक कौन है इसकी तस्दीक बहुत ही जरूरी है। किसने पब्बर से पानी की सप्लाई में रोड़े अटकाए यह भी जानने की आवश्यक्ता है। किसने पंप और टैंकर कारोबारियों के लिए सारा तिलिस्म रचा? इन सारे सवालों के जरिए ही असली बिंदु पर पहुंचा जा सकता। पहले तो उन लोगों को कटघरे में लाने की जरूरत है, जिन्होंने आम शिमलावासियों को बूंद-बूंद के लिए मोहताज़ कर दिया।
माननीय हाईकोर्ट चाहे तो पानी को लेकर कैबिनेट की बैठक में क्या फैसले हुए और किन मुद्दों पर रोड़े अटकाए गए इसकी पड़ताल कर सकता है। फैसले चाहें कांग्रेस के कार्यकाल के हों या बीजेपी के। मामला यहीं पर दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। जहां तक समाचार फर्स्ट की जानकारी है, कांग्रेस के कार्यकाल में भी शिमला में पानी की सप्लाई दुरूस्त करने को लेकर बैठके हुईं। लेकिन, यह कोशिश परवान क्यों नहीं चढ़ी यह भी एक मिस्ट्री है। संभवत: इस बारे में तत्कालीन सरकार के मुखिया और उनकी सिंचाई मंत्री प्रकाश डाल पाएं।
शिमला के जल संकट में सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक स्वार्थ और निजी स्तर पर धन कमाने की आकांक्षा ज्यादा दिखाई देती है। क्यों इतने सालों बाद भी कोई बड़ी परियोजना शिमला को नहीं मिली? यह यक्ष प्रश्न है। जबकि, सभी जानते हैं कि शिमला प्रदेश की राजधानी होने के साथ-साथ ओवर-पॉपुलेटेड शहर भी है। भारी संख्या टूरिस्ट भी आते हैं। ऐसे में यहां कि बुनियादी व्यवस्थाओं पर कुठाराघात क्यों होता रहा है? ये ऐसे प्रश्न है जो हर शहरी के दिमाग में उठ रहे हैं।
सरकार बीजेपी की हो या कांग्रेस की। सियासत है यह चलती रहेगी। लेकिन, जब बात लोगों के बुनियादी जरूरतों की हो तो सभी निजी स्वार्थ खत्म हो जाने चाहिए। क्योंकि, जल-संकट सिर्फ एक का रोना नहीं है। इससे सभी प्रभावित होंगे। ऐसा नहीं कि जिसका आज रसूख है वह कल भी रहेगा। लिहाजा, सभी दलों को पार्टी लाइन से ऊपर उठकर शिमला सहित प्रदेश के तमाम इलाकों में पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं का ख्याल अमल में लाना होगा।
यह बहुत ही दुखद है कि आजादी के 7 दशक बाद भी सरकारें पानी जैसी बुनियादी सुविधा मुहैया नहीं करा पा रही हैं। विगत सालों में शिमला ने दूषित जल की वजह से मौतों का सिलसिला भी देखा है। खराब पानी पीने से शिमला को पीलिया का शिकार होते देखा है। बावजूद इसके कोई ठोस रणनीति और ठोस जल-परियोजना पर काम नहीं हो पाता। फिर बड़ी बेचैनी होती है कि आखिर जनता सरकार क्यों चुनती है? ये मंत्री, मुख्यमंत्री, मेयर, अधिकारी इनका भला क्या काम?
(नोट: उपरोक्त लेख समाचार फर्स्ट के संपादक अमृत तिवारी के निजी विचार हैं)