हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस एक ही गलती बार-बार कर रही है और चेतने का नाम नहीं ले रही है। आप पाठक यह सवाल उठा सकते हैं कि ये समाचार फर्स्ट को आखिरकार कांग्रेस पर तंज कसने की क्या सूझी है। तो जनाब हम बता दें कि लोकतंत्र में सजग और मजबूत विपक्ष का रहना काफी मायने रखता है। लिहाजा, लोकतंत्र के चौथा स्तंभ होने के नाते हम बीजेपी और कांग्रेस का एक तुलनात्मक पक्ष आपके समक्ष पेश कर रहे हैं, गुजारिश है कि आप इसे आखिर तक पढ़ें और कोई राय हो तो वह भी कॉमेंट बॉक्स में दें—
2017 विधानसभा चुनाव की राह पर कांग्रेस
लोकसभा चुनाव 2019 का शोर प्रदेश में सुनाई दे रहा है और एक लाइन में समझे तो कांग्रेस उसी राह पर चल रही है, जो राह 2017 विधानसभा में चुनी थी।
दरअसल, एक तरफ बीजेपी अग्रेसिव होकर बैठकों पर बैठकें कर रही हैं। पार्टी के शीर्ष नेतृत्व कई बैठकों में शिरकत कर चुके हैं। राज्य इकाई ने हाल भी में मंडी कार्यकारिणी की बैठक में मिशन-2019 का खाका भी खींच दिया। जिले स्तर और मंडल स्तर पर बीजेपी की बैठकों का दौर जारी है। लेकिन, दूसरी तरफ कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का अता-पता नही नहीं है। जमीन पर कांग्रेस का संघर्ष दिखाई ही नहीं दे रहा है। ऊपर से नेताओं की आपसी सिरफुट्टौवल पहले की तरह ही जारी है। बड़े नेताओं के बीच संवाद अभी तक कायम नहीं है।
लोकसभा चुनाव 2019 की तैयारियों के मामले में कांग्रेस की रणनीति बीजेपी के मुकाबले काफी पीछे है। अलबत्ता, आप कह सकते हैं कि कांग्रेस ने तो अभी तक कोई ठोस रणनीति नहीं तैयार की है। जबकि, बीजेपी अपने बूथ लेवल के कार्यकर्ताओं को साधने में जुटी हुई है। यही हालात विधानसभा चुनाव के दौरान भी थे।
बीजेपी की तुलना में कांग्रेस की तैयारी
तैयारियों की तुलना करें तो बीजेपी किसी स्पार्टन सेना की तरह अपनी गतिविधि जारी रखे हुए है। वहीं, कांग्रेस के नेता रणनीति छोड़िए जमीन से ही गायब हैं। खै़र आगे के अहम मुद्दों पर नज़र डालने से पहले आप बीजेपी और कांग्रेस की यह तुलनात्मक स्थिति देखिए—
- बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व लगातार हिमाचल के दौरे कर रहा है, जबकि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व नदारद है
- बीजेपी की स्टेट लेवल कार्यकारिणी की बैठक हुई और 2019 का खाका खींचा गया, जबकि कांग्रेस सुस्त पड़ी है
- बीजेपी के राज्य प्रभारी मंगल पांडे अक्सर पार्टी की मीटिंगों में देखे जाते हैं, जबकि कांग्रेस के प्रभारी सुशील कुमार शिंदे और सह प्रभारी रंजीता रंजन का अता-पता ही नहीं है
- बीजेपी बूथ लेवल कार्यकर्ताओं से संपर्क में जुटी है, जबकि कांग्रेस अपने पदाधिकारियों से भी संपर्क नहीं बना पा रही
- बीजेपी में मदभेद के बावजूद नेता एक मंच पर दिखाई देते हैं, वहीं कांग्रेस में एक मंच पर आने का सवाल ही नहीं उठता
- बीजेपी के पास फंड का रोना नहीं है, जबकि कांग्रेस में करोड़पति नेताओं के बावजूद संगठन ग़रीबी झेल रहा है
मुद्दों को भुनाने में नाकाम कांग्रेस
वर्तमान में परिस्थितियां ऐसी हैं कि कांग्रेस के इर्द-गिर्द कई मुद्दे सिसकियां ले रहे हैं। लेकिन, उन्हें उठाने और हल्ला-बोलने में वह असमर्थ दिखाई दे रही है। हम आपको उन मुद्दों को भी बता रहे हैं, जिनको कैच करने में कांग्रेस संगठन बिल्कुल ही फिसड्डी साबित हुआ है—
- मोदी सरकार हो या जयराम सरकार। दोनों ही सरकारों के कामकाज प्रदेश में जमीनी स्तर पर नहीं दिखाई देते। बात नेशनल हाइवे की हो, एम्स की हो या हवाई अड्डों के निर्माण की। अभी घोषणाओं के बाजार में इनकी बोली लग रही है। लेकिन, इस मुद्दों को लोगों के बीच ले जाने में कांग्रेस असफल है
- बीजेपी ने चुनाव पूर्व कानून-व्यवस्था ठीक रखने का वादा किया था। खनन माफिया, वन माफिया, ट्रांसपोर्ट माफिया जैसे तमाम आपराधिक तत्वों पर नकेल कसने की बात कही थी। लेकिन, पिछले 3 महीनों के आंकड़े उठाएं तो राज्य में जुर्म की वारदातों में काफी इजाफा हुआ है। उल्टा मंत्रियों के रिश्तेदारों पर अवैध खनन के आरोप लग रहे हैं। पुलिस भी कार्रवाई से मुंह फेर रही है। अब सवाल उठता है कि बतौर विपक्ष इन मुद्दों को लेकर कांग्रेस ने अभी तक क्या किया???
- प्रदेश में जब चाहें तब तबादलों की तलवार चला दी जा रही है। आए दिन तबादलों को लेकर भी जनता के बीच सवाल उठ रहे हैं। मलाईदार जगहों पर अपने लोगों को सेट कर फायदा उठाने के भी आरोप लग रहे हैं। लेकिन, आप सोचिए इस मुद्दे को लेकर कांग्रेस कहां स्टैंड करती है ??
- सरकार पर अफसरशाही जबरदस्त तरीके से हावी है। इसका उदाहरण कैबिनेट बैठक में नौकरियों में रिइंप्लॉयमेंट को खत्म करने का है। सरकार ने रिइंप्लॉयमेंट को खत्म करने की बात कही। लेकिन, नौकरशाह अपनी मन-मर्जी से अपने चहेतों को नौकरियों में एक्सटेंशन और रिइंप्लॉयमेंट दिए जा रहे हैं। अब बताइए क्या इन मुद्दों को लेकर कांग्रेस क्या सड़क पर दिखाई दी???
- रोड सेफ्टी को लेकर सरकार ने कई वादे किए। लेकिन, आए दिन स्कूल बस और दूसरे वाहन दुर्घटना के शिकार हो रहे हैं। रोड-सेफ्टी को लेकर आरटीओ अधिकारी लुंज-पुंज रवैया अपनाए हुए हैं। एचआरटीसी बसों के परमिट रद्द कर, मलाईदार रूटों पर प्राइवेट बसों को चलने की इजाजत दी जा रही है। अलबत्ता प्राइवेट बसों को अवैध रूटों पर चलने की आजादी है। सवाल ये है कि बतौर विपक्ष कांग्रेस ने इस मुद्दे पर क्या किया?
- बहुचर्चित गुड़ियाकांड में बीजेपी ने चुनाव से पहले काफी मुद्दा बनाया था। सरकार बनने के बाद सीबीआई की दलील लोगों के गले नहीं उतर रही है। इस मुद्दे पर सिवाय बयान देने के कांग्रेस क्या कर रही है?
इनके अलावा हर जिलों में शिक्षा, स्वास्थ्य और प्रशासनिक लापरवाही के रोजाना ढेरों मामले प्रकाश में आते हैं। लेकिन, कभी भी कांग्रेस का संगठन लोगों के बीच पहुंचकर संघर्ष करता नहीं दिखाई देता।
हिमाचल में क्या तीसरे विकल्प की है गुंजाइश?
देश के कुछ राज्यों को छोड़ दें तो बीजेपी और कांग्रेस के अलावा सभी जगह तीसरा और चौथा राजनीतिक विकल्प मौजूद है। कई राज्यों में तीसरा विकल्प काफी मज़बूत दिखाई देता है। पंश्चिम बंगाल में टीएमसी, बिहार में आरजेडी, यूपी में समाजवादी पार्टी और बीएसपी, आंध्र प्रदेश में टीडीपी, तेलांगाना में टीआरएस, हरियाणा में इनेलो जैसी मज़बूत पार्टियां हैं। अगर गौर फरमाएंगे तो पता चलेगा कि इनकी उत्पत्ति में अधिकांश रूप से कांग्रेस का ही विशेष हाथ रहा है। इसके अलावा जनता के बीच पॉलिटिकल वैक्यूम क्रीएट होना सबसे बड़ी वजह रही।
आज की तारीख में हिमाचल प्रदेश में भी यही स्थिति कमोवेश देखी जा सकती है। राजनीतिक विकल्पहीनता फिलहाल दिखाई दे रही है। बीजेपी जिन वादों के साथ आई थी, उनका कहीं अता-पता नहीं है। सरकार पर अफसरशाही हावी है। दूसरी तरफ कांग्रेस में यह कुव्वत दिखाई नहीं देती कि वह जनता के बीच जाकर संघर्ष करे। इस दल के अधिकांश नेता अपने एसी-रूम कल्चर से बाहर आने के लिए तैयार नहीं है। करोड़पति नेताओं के बावजूद पार्टी पाई-पाई की मोहताज है। सबसे बड़ी बात की कांग्रेस के कद्दावर नेताओं के बीच ट्रस्ट-डिफिसिट एक बड़ी ही खूंखार वजह है, इसे संगठित नहीं होने दे रही।
ऐसे में अधिकांश जनता राजनीति की इस बायनरी से अलग हटकर तीसरे विकल्प पर भी गौर फरमा रही है। हालांकि, प्रदेश में किसी तीसरे विकल्प की कोई धमक नहीं है। लेकिन, जिस कदर यहां पॉलिटिकल वैक्यूम बना है उसमें तीसरे दल के मजबूत होने की संभावना काफी ज्यादा है।