जब पहाड़ी शब्द पिछड़ेपन का प्रतीक था। उस वक्त सोलन बाज़ार से गुजरते हुए किसी व्यापारी के एक ताने " देखो पहाड़ी जा रहे है " !!! उन्होंने अपने मित्रों संग इसे अपनाया। उनके साथ चल रहे मित्रों ने इस शब्द को सरनेम के रूप में जोड़ा और खुद एक नेतृत्वकर्ता के रूप में पहाड़ियों को पहचान दी और इस शब्द को ताने से सम्मान के रूप में बदलकर दिखाया।
वे हिमाचल के संस्थापक थे, एक छोटे से पहाड़ी राज्य को लड़कर उन्होंने पंजाब से अलग करवाकर स्थापना में बहुमूल्य योगदान दिया। उन्हीं के कार्यकाल में हिमाचल प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा भी मिला। वो हिमाचल प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री थे और 1977 तक इस पद पर रहे। स्वेच्छा से राजनीति से संन्यास लिया और मुख्यमंत्री पद और प्रतिष्ठा छोड़कर सिरमौर जिला में अपने गांव के लिए हिमाचल परिवहन की सरकारी बस में बैठकर शिमला से अपना संदूक लेकर निकल गए।
एक बार किसी काम से शिमला आये तो नाहन जाने वाली बस में कंडक्टर से टिकट मांग रहे थे। तब कंडक्टर ने पहचाना यह तो हिमाचल निर्माता वर्षों तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे डाक्टर यशवंत सिंह परमार है। ऐसी सादगी विचारों और कर्म में थी। आज के दिन 2 मई 1981 के दिन हिमाचलवासियों के लिए अपनी ईमानदारी, लगन, निष्ठा, अथक परिश्रम और पवित्र सेवाभाव से एकत्र की हुई अकूत सार्वजनिक विरासत छोड़कर इस दुनिया को अलविदा कहने वाले डा. परमार के बैंक खाते में मरणोपरांत मात्र 563 रु 30 पैसे थे।
शिमला के ऐतिहासिक रिज मैदान पर बुत के रूप में खड़े डाक्टर परमार आज भी हिमाचल के स्वावलम्बन और प्रगतिपथ पर बढ़ने के सपने को आँखों में संजोये हुए दिखते है। आज उनकी पुण्यतिथि है। हिमाचल निर्माता डॉक्टर यशवंत सिंह परमार को हमारी….. श्रद्धांजलि