हिमाचल प्रदेश में माननीयों की पेंशन आज बेश़क लाखों तक पहुंच चुकी है लेकिन आपको ये जानकर हैरानी होगी कि इस पेंशन की शुरुआत हिमाचल से ही हुई है। 1972 से पहले हिमाचल में विधायकों को ऐसी कोई सुविधा नहीं दी जाती थी। विधायक अगर दोबारा नहीं चुना जाए तो उसे आम जन की तरह रोजी कमाने पड़ती थी लेकिन उसके बाद ऐसा क्या हुआ जो माननीयों को पेंशन की सुविधा मिलने लगी?
कहानी 1972 की ही है… जब मुख्यमंत्री YS परमार सिरमौर के दौरे पर निकले थे और उन्होंने एक पुराने दोस्त को वहां याद किया जो 1967 में विधायक थे। लेकिन उनके दोस्त वहां परमार से मिलने नहीं आये। इस बात की मुख्यमंत्री को भी काफ़ी हैरानी हुई। इसके बाद वहां पर उपस्थित एक जूनियर इंजीनियर ने मुख्यमंत्री परमार को बताया कि वे पूर्व विधायक दिहाड़ी का काम कर रहा है। क्योंकि जीवन यापन का उसके पास और कोई चारा नहीं है।
इसके बाद परमार ने इस समस्या को लेकर गंभीरता से विचार किया। उस समय पूरे देश में विधायकों की यही स्तिथि हुआ करती थी। पूर्व मंत्री रणजीत सिंह वर्मा ने बताया कि उस वक़्त तन्खवा सिर्फ 400 रुपये होती थी। इस सारी समस्या पर डॉक्टर परमार ने अध्ययन किया और न्यूज़ीलैंड के एक मामले की स्टडी भी की। आख़िर में 1972 में उन्होंने माननीयों के लिए पेंशन लाने के प्रस्ताव डाल दिया। 300 रूपए के हिसाब से पेंशन लगाने का उस समय प्रावधान कर दिया गया।
इसके बाद 1977 में विधायक विजय जोशी सहित कई विधायकों ने जरूर इसका विरोध किया, लेकिन कुछ ने इसका समर्थन भी किया। रणजीत सिंह वर्मा ने बताया कि उस समय हमने भी इसका विरोध किया था। लेकिन इसपर कोई पुर्नविचार नहीं हुआ। उसके बाद आजतक पेंशन का विरोध किसी ने नहीं किया, बल्कि जिस मकसद से इसे शुरू किया गया था उसका लाभ पूरे देश को मिला। हिमाचल देश में पहला राज्य बना था जहां पेंशन शुरू की गई थी।