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व्यंग्य: बाप हो तो वीरभद्र सिंह जैसा, वर्ना ना हो!

समाचार फर्स्ट डेस्क |

टिंकू फर्जीवाल।। भाई! बाप हो तो राजा वीरभद्र सिंह जैसा, वर्ना ना हो। कंबख्त! पार्टी के नेता धमा-चौकड़ी करते रह गए, लेकिन राजा साहब ने अपने सुपुत्र का राजनीतिक करियर सेट कर ही दम लिया। मसला, अब औपचारिक रूप से टिकट मिलने का है। वह भी मिल ही जाएगा। राजा साहब 29 सितंबर को दिल्ली जा रहे हैं, बस एक बार अपना रौद्र रूप दिखाएंगे फिर अपना और अपने बेटे का टिकट लेके ही लौटेंगे। ज्यादा चली तो अपनी पत्नी का भी टिकट समेट लेंगे।

अपने बाल-बच्चों का ख़्याल कैसे रखा जाता है भारत के हर बाप को यह राजा साहब से सीखना चाहिए। क्योंकि, आप गौर फरमाएंगे तो देखेंगे कि भारत के अधिकांश बाप अपनी औलादों पर यही ताना मारते हैं, "मेरी जिम्मेदारी पढ़ाने-लिखाने की थी सो मैंने किया, अब तुम अपने पैरों पर खड़े हो जाओ।"

कंबख्त ग्रेजुएट होते ही पिता जी लोगों की जुबान तल्ख़ हो जाती है और जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है ताना मारने की धार भी पैनी होती जाती है। लेकिन, ऐसे फासीवादी डैडी लोगों को माननीय वीरभद्र जी से प्रेरणा लेनी चाहिए कि बाप का काम सिर्फ औलाद को पैदा करना और पढ़ाना-लिखाना नहीं बल्कि अच्छी जगह सेट कराना भी होता है। भले कोई भी शाम, दाम,दंड भेद इत्यादि लगाना पड़े।

एक और बात हमारे पिताजी लोग 60 की उम्र पार करते ही रिटायर्ड-पर्सन का चोला ओढ़ लेते हैं। फिर, दवा-दारू और घुटनों का दर्द लेके बैठ जाएंगे। बेवजह, औलादों को तंग भी करेंगे। कभी पानी लाओ, बाजार से सब्जी लाओ, राशन लाओ, बिजली का बिल भरो वगैरा-वगैरा। कोई काम औलाद से अनसुनी रह जाए तो आसमान सिर पर उठा लेंगे, "इसी दिन के लिए पाल पोसकर बड़ा किया था? यही दिन देखना रह गए था! पड़ोस वाले शर्मा जी के बेटे को देख… बाप की एक बात नहीं टालता। आज पैर थक गए तो एक गिलास पानी तक नहीं दे रहा!"

कसम से आपको इस टिंकू फर्जीवाल के दावे भले फर्जी लगें, लेकिन हिंदुस्तानी औलादों के पिताओं के ताने एक ही फैक्टरी से निर्मित होते हैं। 60 पार करते ही ये लोग बेचारा की श्रेणी में खुद को मान बैठते हैं। औलाद ही अब सबकुछ करे। अरे, पापाओं! कम से कम हमारे मुख्यमंत्री जी से सीखो। उम्र के 84 सावन-भादो काट चुके हैं। फिर भी हाथ में नंगी तलवारें भांजते हैं और उनकी छत्र-छाया में उनका बेटा बेफिक्र होकर मुस्कुराता रहता है। सच्चाई बता रहा हूं कि पिछले जन्म में विक्रमादित्य जी ने कोई पुण्य जरूर किए होंगे, जो ऐसा डैडी उन्हें मिला है। और तो और हमारे जैसों को अगले जन्म में भी ऐसा पिता मिलने से रहा, क्योंकि विक्रमादित्य जी ने इस जन्म में भी पुण्य का कारोबार जारी रखे हुए है।

84 के उम्र में भी औलादों के लिए संघर्ष वाला अगर बाप हो तो वाजिब है उसके बेटे के चेहरे पर हमेशा हंसी बिखरी ही रहेगी। ऐसी औलादें कभी नहीं शिकायत करती कि 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है.' क्योंकि, ऐसे दमदार डैडी हों तो लड़किया भी ब्रेकअप नहीं करतीं। ये लोग जहां खड़े होते हैं, लाइन भी वहीं से शुरू हो जाती है। टिकट की लाइन में सालों से खड़े नेताओं को देख आप अंदाजा लगा सकते हैं। भले पुत के पैर पालने में दिखते होंगे, लेकिन, जनाब हाईकमान में वीरभद्र सिंह दिखते हैं।

दूसरी तरफ, 60 साल के लिमिटेड ऑफर वाले पिताओं के बच्चों के चेहरे देखना…कसम से मुरछाया, बिखराया, छितराया, सताया आदि सा जान पड़ेगा। उम्र बचपन का लेकिन तजुर्बा 55 का हो जाता है। मसला नौकरी का हो या टिकट हाड़तोड़ परिश्रम पर सिफारिश की लाठी चलते ही जवानी के सारे सिंड्रोम विलुप्त हो जाते हैं।

आज मेरा मन आज आक्रोशित है। मैं रो रहा हूं, जबकि पता है मुझे कोई सुन भी नहीं रहा है। कंबख़्त, महबूब के लिए आखिरी सांस तक वादा निभाने की रस्में हैं। लेकिन, पहली बार औलाद के लिए आखिरी सांस तक फर्ज़ निभाने का किसी में महान जज्बा है तो वह हमारे राजा साहब में है।

ऐसे में भारत के बाकी बापों से मैं पूछना चाहता हूं कि क्या आपनी औलादों पर 'यूनिफॉर्म टॉर्चर कोड' लागू करना सही है? क्या उनका ज़मीर नहीं जागता कि वे भी अपनी औलादों को तमाम दुश्वारियां झेलते हुए सेट करके ही दम लें? क्या उनके बेटों को यह कॉन्फिडेंस रखने का हक नहीं कि करियर (—) नहीं तो क्या हुआ बाप तो है…

(उपरोक्त व्यंग्य विनोदी भाव से लिखा गया है।  यह मज़ाक है और तथ्य से जुदा है। इसका उद्देश्य किसी व्यक्ति, संगठन या संस्था की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है। तनाव भरे माहौल में लोड मत लीजिए…लेखनी के इस शानदार विधा का आनंद उठाइए. टिंकू फर्जीवाल फिर किसी दिन आपसे टकराएगा। तब तक के लिए बाय, टाटा, सफारी, फरारी, मर्सजीड..etc)