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विनर या लूज़र? महिला मतदाता बनीं तुरुप का पत्ता

समाचार फर्स्ट डेस्क |

हिमाचल में विधानसभा के चुनावी चौसर पर हर शख्स ने अपने मुख़ालिफ के खिलाफ चालें चल दी हैं। आवाम ने भी चुप्पी-साध अपना जजमेंट ईवीएम में दर्ज करा दिया है। लेकिन, अब कयास यही लगाए जा रहे हैं कि किसकी चाल क़ामयाब है और किसकी नाक़ामयाब । लेकिन, चर्चाओं में आंकड़ों का अड़ंगा डाल अपनी बात पुष्ट कराने वाले राजनीतिक पंडितों केभी दावे देखने लायक हैं। अब जहां सभी के दावे परवान चढ़ रहे हैं, ऐसे में समचार फर्स्ट ने भी अपनी कुछ शंकाएं आप सभी पाठकों से साझा करने का जोख़िम उठा रहा है।

देखिए, जनाब… हिमाचल प्रदेश में निसंदेह करीब 75 परसेंट की बंपर वोटिंग हुई है।  अब जीत का 'की-फैक्टर' क्या हैं इसको लेकर बहस भी काफी है। लेकिन, एक फैक्टर ऐसा है जिसकी तरफ सोचना बेहद जरूरी है और वह फैक्टर है महिला मतदाताओं का। इस बार हुई बंपर वोटिंग में महिलाओं की भागीदारी काफी अधिक है। महिलाओं का वोट प्रतिशत लगभग-लगभग पुरुष मतदाताओं के बराबर है। ऐसे में महिला मतदाताओं की सायकॉलजी क्या है यह समझना बहुत जरूरी है। क्योंकि, महिलाओं के वोट से चुनावी चौसर का जय-परायजय का नतीजा बदल सकता है।

बंपर वोटिंग है दो-धारी तलवार

चुनाव संपन्न होने के बाद अगर बढ़ते मत प्रतिशत को लेकर लोग अगर एंटी-इनकंबेंसी फैक्टर बता रहे हैं, तो शायद वे ग़लत भी हो सकते हैं। हालांकि, चुनावी राजनीति में एक थ्यौरी प्रचलित है कि अगर मतदान प्रतिशत में बढ़ोतरी होती है, इसका संकेत सत्ता परिवर्तन होता है। लेकिन, हिमाचल प्रदेश का चुनावी माहौल अलग था। हिमाचल के हर सीट पर कांटे की टक्कर देखी गई है। ख़ासकर दिग्गज नेताओं की सीट पर तो और भी मारा-मारी रही। यहां चुनाव किसी बड़े फलक के एजेंडे पर नहीं बल्कि लोकल एजेंडे पर लड़े जा रहे थे। ऐसे में अगर बढ़े हुए मत-प्रतिशत की दस्दीक़ करें तो मामला बीजेपी और कांग्रेस दोनों के लिए घातक साबित हो सकता है।

अब ठोस आंकलन भी जरूरी है कि आखिरकार बढ़े हुए मतप्रतिशत का झुकाव किसी ना किसी पर तो होगा ही। ऐसे में यह कहना लाजमी होगा कि हर लोकल एजेंडे पर यह बात उसके राजनीतिक परिस्थिति पर लागू होगी। इसमें महिला मतदाता और नए वोटर तुरुप के पत्ते हैं।

महिला मतदाता हैं तुरुप का पत्ता

किसी भी प्रत्याशी की जीत में महिला मतदाताओं का समर्थन ख़ास होने वाला है। क्योंकि, जिस उत्साह के साथ महिलाओं ने वोट किया है वह क़ाबिल-ए-तारीफ़ भी है और जीत की कुंजी भी। इस विधानसभा चुनाव में जहां 50.74 पुरुष मतदाताओं ने वोट डाले, वहीं पिछली बार की तुलना में  49.26 फीसदी महिलाओं ने वोट डाले। अब महिलाएं किस आधार पर वोट डाली होंगी। वह उनक एजेंडों पर निर्भर करता है। चुनाव के दौरान समाचार फर्स्ट ने अधिकांश महिलाओं से उनके चुनीव मुद्दों पर चर्चा की थी। जिनमें उन्होंने बड़ी बेबाकी से महंगाई, नशा और कानून-व्यवस्था पर चिंता जाहिर की थीं। कुछ बुजुर्ग महिलाओं ने बेरोजगारी को भी बड़ा मुद्दा बताया था।

अब समझना यह है कि अधिकांश महिलाओं ने पुरुषों की तरह निजी द्वंद या इगो में वोट नहीं बल्कि महंगाई और नशे के खिलाफ वोट डाले होंगे। मसलन जो प्रत्याशी इन मुद्दों को सही तरीके से हैंडल किया होगा। शायद, उसके फेवर में इस तबके का वोट जा सकता है।

ऐसे में देखें तो बीजेपी गुड़िया प्रकरण को लेकर कांग्रेस पर क़ानून-व्यवस्था और नशा माफिया को लेकर प्रचार कर रही थी। हो सकता है कि वोट उधर चला गया हो। लेकिन, दूसरी तरफ चुनाव के दौर में ही गैस-सिलेंडर में जिस तरह से लगभग 100 रुपये तक की बढ़ोतरी हो गई थी, उसके मद्देनज़र हो सकता है महिलाओं ने कांग्रेस को चुन लिया हो। क्योंकि, महंगाई की सबसे ज्यादा पीड़ित महिलाएं ही दिखती हैं। घर-परिवार का बजट संभालने का जिम्मा ना सिर्फ हाउस-वाइफ बल्कि काबकाजी महिलाएं ही करती हैं। ऐसे में महंगाई का मुद्दा बीजेपी को भारी पड़ सकता है।

बेरोजगारी के नाम पर युवाओं का वोट, लेकिन प्रचार से रहा प्रभावित

इस बार भी भारी संख्या में युवाओं ने वोट डाले। इसमें नए मतदाताओं का रोल ख़ास रहने वाला है। युवाओं के एक बड़े तबके ने बेरोजगारी के आधार पर भी बटन दबाए हैं। इसके अलावा अधिकांश नए मतदाता प्रचार के शोर से ज्यादा प्रभावित दिखाई दिए। जिसकी सोशल मीडिया पर धमक ज्यादा रही, नए मतदाताओं का रूझान भी उसी से प्रभावित दिखा। वैसे तो प्रादेशिक स्तर पर इस मामले में बीजेपी ने ज्यादा कसरत की, लेकिन कांग्रेस के भी कई प्रत्याशी ऐसे थे जो निजी तौर पर सोशल मीडिया पर छाए रहे। लगातार उनके पेज से वीडियो और उनके निजी संपर्क देखे जा सकते थे। इनके पेज पर युवाओं की प्रतिक्रियाएं भी गौर करने वाली रहीं। कई मतदाता तर्क-संगत बात करते हुए दिखाई दिए तो कइयों ने अमर्यादित टिप्पणी से भविष्य में स्वच्छ राजनीतिक प्रचार पर कुठाराघात भी किया। लेकिन, उम्मीद तर्कसंगत बात रखने वाले युवाओं से ही रहेगी।

स्थानीय नेताओं ने बेरोजगारी के खिलाफ कितना संघर्ष किया है, अब वहां के निजी परिवेश पर निर्भर करता है। लेकिन, यहां स्थिति थोड़ी अलग है। युवा थोड़ा भ्रमित भी था। अब बेरोजगारी का ठिकरा किस पर फोड़े इसमें भी युवा कन्फ्यूज़ दिखाई दिया। क्योंकि, प्रचार के शोर में कई लोग इसे राज्य का निकम्मापन बता रहे थे, तो कुछ केंद्र की नीतियों को कटघरे में खड़ा कर रहे थे। कई जगहों पर लोकल स्तर पर हुए रोजगार के प्रयास भी प्रचार के शोर में धूमिल हो गए।

जीएसटी का भूत भी चुनाव में निभा गया रोल

जीएसटी को लेकर भी काफी खींचतान रही। व्यापारी वर्ग तो इस भूत के प्रकोप को समझ रहा था। लेकिन, इसके अलावा बाकी जनता इसके जमीनी समझ से कोसो दूर थी। दरअसल, जीएसटी का सीधा संपर्क शुरू-शुरू में व्यापारियों से रहा। ऐसे में व्यापारियों में ख़ासा रोष देखा गया। लेकिन, यह मुद्दा इसी तबके में हावी रहा। हां, प्रचार दल ने कुछ हद तक इसके लाभ-हानि (अपनी सहूलियत के मुताबिक) महिलाओं तक ले जाने में जरूर कामयाब रहा।

इसके अलावा चुनाव जीतने के दूसरे कुत्सित तरीके भी देखने को मिले। जिनमें शराब, कैप्सूल, गांजा जैसे नशा का बोलबाला भी रहा। हालांकि, कई जगहों पर चुनाव आयोग की दबीश भी रही, बावजूद इसके कई क्षेत्रों में प्रत्याशियों ने इसके जरिए भी नशेड़ी मतदाताओं को रिझाने की कोशिश की। लेकिन, नशे के बदले वोट का कितना प्रभाव पड़ेगा यह भी देखना जरूरी होगा। क्योंकि, इससे एक स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा को काफी हानि होने की संभावना है।

मगर, कुल मिलाकर अगर कहां जाए तो सभी मतो पर महिला और नए वोटरों का बढ़ा मत-प्रतिशत ही अधिकांश प्रत्याशियों की जीत-हार में अहम रोल निभाने वाला है। ऐसे में जीत हार का अतंर भी इन्हीं के ऊपर डिपेंड करता है।