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चूड़धार की चोटी पर स्थित ‘शिरगुल महाराज’ की यात्रा शुरू, 6 माह बाद खुले मंदिर के कपाट

पी. चंद |

पी. चंद। देव भूमि हिमाचल के मंदिर अपने अंदर कई रहस्य छुपाए हुए हैं। ऐसा ही एक मंदिर हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले में सबसे ऊंची चोटी चूड़धार में स्थित है जिसे शिरगुल महराज के नाम से जाना जाता है। शिरगुल महाराज को मुख्यतः सिरमौर और चौपाल का देवता माना जाता है। जो शिरगुल महाराज का मूल स्थान है वह शिमला में पड़ता है जबकि चोटी पर स्थित बनाई गई विशालकाय शिवमूर्ति सिरमौर जिला में आती है।

समुद्र तल से लगभग 11965 फीट की ऊंचाई पर बनाया ये मंदिर पर्यटकों के भी आकर्षण का केंद्र बन रहा है। इस मंदिर के कपाट बर्फ़बारी के चलते 6 माह के लिए बन्द हो जाते हैं। फ़िर वैशाखी के दिन मंदिर के कपाट खुलते हैं। चूड़धार की यात्रा वैसे तो शिमला और सिरमौर दोनों जगह से की जा सकती है लेकिन इस पर्वत पर पहुंचने के लिए मुख्‍य रास्‍ता नौराधार से होकर गुजरता है। यहां से चूड़धार की दूरी तकरीबन 14 किलोमीटर है।

दूसरा रास्‍ता सराहन चौपाल का है जहां से चूड़धार महज 6 किलोमीटर की ही दूरी पर है। जहां से 6 किलोमीटर की चढ़ाई चढ़नी होती है वे इलाका देवदार के घने जंगलों बर्फ़ के बीच से होकर गुजरता है। इस चढ़ाई को शिरगुल महाराज की शक्ति ही पार करवाती है। जंगलों की पथरीली राह को पार करते हुए आधे रास्ते “खडाच” तक पहुंचते हैं। जहां एक अस्थाई दुकान बनाई गई है जिसमें चाय पानी पीने का बंदोबस्त है।

करीब 4 घंटे के मुश्किल सफ़र के बाद कालाबाग पहुंचते हैं जहां से शिरगुल महाराज का मंदिर नज़र आता है। चूड़धार की चोटी से चारों तरफ़ का मनोहर दृश्य किसी स्वर्ग की अनुभूति करवाता है। यहां से मात्र आधे घंटे में ही शिरगुल महाराज के मंदिर पहुंचा जा सकता है। यह मंदिर प्राचीन पहाड़ी शैली में बना हुआ है। शिरगुल महराज मंदिर को लेकर पौराणिक कथाओं में शिव भक्‍त चूरु और उनके बेटे का जिक्र मिलता है।

कथा में क्या है जिक्र?

कथा के अनुसार चूरु अपने पुत्र के साथ इस मंदिर में दर्शन के लिए आया था। उसी समय अचानक एक बड़ा सा सांप न जानें कहां से आ गया। देखते ही देखते वह सांप चुरु और उसके बेटे को काटने के लिए आगे बढ़ने लगा। तभी दोनों ने भगवान शिव से अपने प्राणों की रक्षा करने की प्रार्थना की। कुछ ही क्षणों में एक विशालकाय पत्थर उस सांप के ऊपर जा गिरा। कहते हैं कि चूरु और उसके बेटे की जान बचने के बाद दोनों ही भगवान शिव के अनन्‍य भक्‍त हुए।

इस घटना के बाद से मंदिर के प्रति लोगों की श्रद्धा बढ़ती गई। साथ ही उस जगह का नाम भी चूड़धार के नाम से प्रसिद्ध हो गया। इसके अलावा चट्टान का नाम चूरु रख दिया गया। कहा जाता है कि हिमाचल प्रवास के दौरान आदि शंकराचार्य ने इस स्‍थान पर शिवलिंग की स्‍थापना की थी। इसी स्‍थान पर एक चट्टान भी मिलती है जिसे लेकर मान्‍यता है कि यहां पर भगवान शिव अपने परिवार के साथ रहते थे।

मंदिर के बाहर बावड़ी भी है उसके जल से पवित्र होकर मंदिर में प्रवेश किया जाता है। बावड़ी का जल अत्‍यंत पवित्र है। कहा जाता है कि इनमें से किसी भी बावड़ी से दो लोटा जल लेकर सिर पर डालने से सभी मन्‍नतें पूरी हो जाती हैं। चूड़धार की इस बावड़ी में भक्‍त ही नहीं बल्कि देवी-देवता भी आस्‍था की डुबकी लगाते हैं। इस क्षेत्र में जब भी किसी नए मंदिर की स्‍थापना होती है तब देवी-देवताओं की प्रतिमा को इस बावड़ी में स्‍नान कराया जाता है। इसके बाद ही उनकी स्‍थापना की जाती है। चूड़धार की बावड़ी में किये गए स्‍नान को गंगाजल की ही तरह पवित्र मानते है। कहा जाता है कि चूड़धार पर्वत के साथ ही हनुमान जी को संजीवनी बूटी मिली थी।

ट्रैकिंग के लिए प्रसिद्ध हो रहा चूड़धार

शिरगुल महाराज जी का मंदिर शिमला जिला में आता है। जबकि आधे घण्टे की कठिन चढ़ाई के बाद चोटी पर बनाई गई शिव भगवान की मूर्ति सिरमौर जिला में आती है। जहां निचले का दृश्य सबको आकर्षित कर लेता है। हरे-भरे और दिल छू लेने वाले परिदृश्य के बीच, चूड़धार चोटी हिमाचल प्रदेश में स्थित शिवालिक रेंज की सबसे ऊंची चोटियों में से एक है। प्रकृति प्रेमी के लिए यह स्थान प्रकृति के करीब अपना समय बिताने के लिए अभूतपूर्व टूरिस्ट स्पॉट है। यह स्थान ट्रेकिंग के लिए प्रसिद्ध है। चूड़धार को अविश्वसनीय सुंदरता के चलते इसे चूड़ीचांदनी के रूप में भी जाना जाता है।

प्राकृतिक सौंदर्य और कठिन रास्ता

चौतरफ़ा प्राकृतिक सौंदर्य के दर्शन करवाता चूड़धार का रमणीय स्थान पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता है। अभी मंदिर जाने के लिए कठिन पैदल रास्ते के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है। हरा बाग में खुला स्थान है जहां हेलीपैड बन सकता है। रोपवे की भी आपार संभावनाएं है। बस ज़रूरत है सरकारों को अपनी इच्छाशक्ति जागृत करने की। उम्मीद है आने वाले वक्त में ये कठिन डगर आसान हो जाएगी।