जानिए क्या है कुल्लू दशहरा उत्सव का ऐतिहासिक पहलू

<p>समृद्ध संस्कृति का परिचायक कुल्लू का दशहरा पहली बार कुल्लू में 1660 ईस्वी को मनाया गया था। उस समय कुल्लू में राजा जगत सिंह का शासन हुआ करता था और राजा को कुष्ठ रोग से मुक्ति मिलने पर इस मेले के आयोजन का एलान किया किया था। जिसमें राजा जगत सिंह की रियासत के साथ लगती अन्य रियासतों के देवी देवताओं को भी निमंत्रण दिया गया था और उत्सव में 365 देवी देवताओं ने शिरकत की थी। उसके बाद यह उत्सव हर साल मनाया जाने लगा। उत्सव को मनाने की यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती गई और उत्सव का स्वरूप भी विस्तृत होता गया। लिहाजा, 21वीं सदी में भी दशहरा उत्सव मनाया जा रहा है। वक्त के साथ उत्सव का स्वरूप भी बदलता गया जो आज अंतर्राष्ट्रीय उत्सव का दर्जा प्राप्त किए हुए हैं।</p>

<p>दशहरा के आयोजन के पीछे भी एक रोचक घटना का वर्णन मिलता है। राजा जगत सिंह ने वर्ष 1637 से 1662 ईस्वी तक शासन किया। उस समय कुल्लू रियासत की राजधानी नग्गर हुआ करती थी। कहा जाता है कि राजा जगत सिंह के शासनकाल में मणिकर्ण घाटी के गांव टिप्परी में एक गरीब ब्राह्मण दुर्गादत्त रहता था और किसी ने राजा को यह झूठी सूचना दी कि ब्राह्मण के पास एक पथ्था(डेढ़किलो) सुच्चे मोती है जो राज महल में होने चाहिए। राजा ने तुरंत आदेश जारी कर दिए कि सुच्चे मोती को राजा के पास लाया जाए। लेकिन गरीब ब्राह्मण के पास कोई सुच्चे मोती नहीं थे और उसने राजा के भय से परिवार सहित आत्मदाह कर लिया। जब राजा को इसका पता चला तो राजा जगत सिंह को ग्लानि हुई। कई इतिहासकार तो बताते हैं कि इस दोष के कारण राजा को कुष्ठ रोग हो गया था।</p>

<p>कुष्ठ रोग से ग्रसित राजा जगत सिंह को झीड़ी के एक पयोहारी बाबा किशन दास ने सलाह दी कि वह अयोध्या के त्रेतानाथ मंदिर से भगवान राम चंद्र, माता सीता और रामभक्त हनुमान की मूर्ति लाकर कुल्लू के मंदिर में स्थापित करके अपना राज-पाट भगवान रघुनाथ को सौंप दे तो उन्हें ब्रह्महत्या के दोष से मुक्ति मिल जाएगी। इसके बाद राजा जगत सिंह ने श्री रघुनाथ जी की प्रतिमा लाने के लिए बाबा किशनदास के चेले दामोदर दास को अयोध्या भेजा। दामोदर दास वर्ष 1651 में श्री रघुनाथ जी और माता सीता की प्रतिमा लेकर गांव मकड़ाह पहुंचे।</p>

<p>माना जाता है कि ये मूर्तियां त्रेता युग में भगवान श्रीराम के अश्वमेघ यज्ञ के दौरान बनाई गई थीं। वर्ष 1653 में रघुनाथ जी की प्रतिमा को मणिकर्ण मंदिर में रखा गया और वर्ष 1660 में इसे पूरे विधि-विधान से कुल्लू के रघुनाथ मंदिर में स्थापित किया गया। राजा ने अपना सारा राज-पाट भगवान रघुनाथ जी के नाम कर दिया तथा स्वयं उनके छड़ीबदार बने। कुल्लू के 365 देवी-देवताओं ने भी श्री रघुनाथ जी को अपना ईष्ट मान लिया। इससे राजा को कुष्ट रोग से मुक्ति मिल गई। रोग मुक्त होने की खुशी में राजा ने सभी 365 देवी देवताओं को निमंत्रण दिया और खुशी में उत्सव मनाया जो बाद हर साल मनाने से यह एक परंपरा बन गई ओर आज दशहरा उत्सव का स्वरूप पनपा।</p>

<p>श्री रघुनाथ जी के सम्मान में ही राजा जगत सिंह ने वर्ष 1660 में कुल्लू में दशहरे की परंपरा आरंभ की। तभी से भगवान श्री रघुनाथ की प्रधानता में कुल्लू के हर-छोर से पधारे देवी-देवताओं का महा सम्मेलन यानि दशहरा मेले का आयोजन अनवरत चला आ रहा है। यह दशहरा उत्सव धार्मिक, सांस्कृति और व्यापारिक रूप से विशेष महत्व रखता है। दशहरा उत्सव का अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक का सफर जब से कुल्लू दशहरा उत्सव को मनाने की परंपरा शुरू हुई हालांकि उस समय यह सिर्फ देवी देवताओं और कुछ रियासतों तक ही सीमित था लेकिन धीरे धीरे इसका व्यापारिक, सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व बढ़ता गया। 1966 में दशहरा उत्सव को राज्य स्तरीय उत्सव का दर्जा दिया गया और 1970 को इस उत्सव को अंतर्राष्ट्रीय स्तर का दर्जा देने की घोषणा तो हुई लेकिन मान्यता नहीं मिली। लेकिन वर्ष 2017 में इसे ऐतिहासिक उत्सव को अंतर्राष्ट्रीय उत्सव का दर्जा दिया गया।</p>

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