देवभूमि हिमाचल ऐसी पावन धरा है जहां के चप्पे-चप्पे पर देवी देवता रमण करते हैं जिसका जीता जागता उदाहरण देवभूमि में साल भर चलने वाले धार्मिक अनुष्ठानों में मिलता है यहां के प्राचीन ऐतिहासिक मंदिर इस पहाड़ी प्रदेश को विश्व मानचित्र में एक अलग पहचान दिलाते हैं। यही नहीं देवभूमि हिमाचल के लोगों की आस्था का भी असर है कि वह आज भी अपनी प्राचीनतम सभ्यता संस्कृति को जीवित रखे हुए हैं। यहां के मंदिर अपने अंदर ना जाने कितने ही अनसुलझे रहस्य को छुपाए बैठे हैं। ऐसा ही एक मंदिर है जिला कांगड़ा के बैजनाथ से लगभग 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित महाकाल मंदिर।
इस मंदिर के बारे में माना जाता है कि कालांतर में जालंधर नामक दैत्य ने यहां पर घोर तप किया था। इसी कारण इस जगह को दैत्य जालंधर की तपोस्थली भी कहा जाता है। भगवान भोलेनाथ का घोर तप कर जालंधर ने प्रसन्न कर उनसे वर मांगा कि काल भी मुझे मार ना सके। भोले शंकर ने तथास्तु कहकर जालंधर को मनचाहा प्रदान प्रदान किया। उसके बाद दैत्य जालंधर ने मद में चूर ऋषि-मुनियों को सताना शुरू कर दिया। जिससे दुखी हो ऋषि-मुनियों ने भगवान से दैत्यों को मारने की गुहार लगाई । तत्पश्चात भगवान शंकर ने महाकाल का रूप धरकर महादेव जालंधर का संहार किया था।
तभी से महाकाल मंदिर में भोले शंकर पिंडी के रूप में विराजमान हैं। इस पिंडी में जितना भी जल चढ़ाया जाए ये उसको अपने मे समा लेती है। ये पानी पिंडी से बाहर नही निकलता है। महाकाल मंदिर समूचे उत्तर भारत में अपनी तरह का पहला मंदिर है पूरे विश्व भर में शनि देव के 2 मंदिर हैं जिनमें से उज्जैन एक है जो कि मध्यप्रदेश में है। जबकि दूसरा मंदिर बैजनाथ के समीप महाकाल में है। जिसका वर्णन पुराणों में भी मिलता है।
महाकाल मंदिर की एक खासियत यह भी है कि यहां पर श्मशान घाट में हर दिन घास का एक गट्ठा जलाना पड़ता है। क्षेत्र के लोगों का मानना है जिस दिन गलती से भी यहां पर घास का गठा नहीं जलाया जाए उस दिन आसपास के क्षेत्र में अचानक किसी की मृत्यु हो जाती है। मंदिर के पास ही शनिधाम भी है यहां पर काले महीने में लोग भीड़ की खूब भीड़ जुटती है शनि देव की आराधना करती हैं। इस शनि मंदिर की भी अपनी बहुत बड़ी महत्ता है।