हमारी राष्ट्रीय भाषा हिंदी के लिए 14 सितंबर सन 1949 के दिन का विशेष महत्व है। इस दिन स्वतंत्र भारत की संविधान सभा ने सर्वसम्मति से सर्वगुण सम्पन्न नागरी लिपि में लिखित हिंदी को संघ की राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित किया था। वजह साफ थी पिछली कई सदियों से मुस्लिम और अंग्रेजी शासनकाल में भारत देश की नैसर्गिक लोकभाषा होते हुए भी हिंदी को सरकारी अथवा राजकीय कामकाज की भाषा के रूप में उपेक्षा की जाती रही थी। अतः देश के परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त होने के बाद हिंदी को चिर प्रतीक्षित जन्मसिद्ध अधिकार प्राप्त हो जाने की उम्मीद जगी थी। जिससे देश प्रेमियों के अंदर गर्व एवम गौरव की अनुभूति होना स्वाभाविक था।
14 सितंबर सन 1949 को संविधान के अनुच्छेद 343 खण्ड एक में जहां संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी का प्रावधान किया गया था। वहीं, उक्त अनुच्छेद के खण्ड दो में ये प्रावधान भी किया गया था कि शुरू के 15 साल तक संघ के उन सब राजकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा प्रयोग की जाती रहेगी। ये प्रावधान उसी तरह का था जैसा कि गुलामी में होता रहा था। ये इसलिए किया गया था ताकि अनेक अहिन्दी भाषी राज्याधिकारी इस समयावधि के दौरान हिंदी का व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त कर सकें। लेकिन आज़ादी के 70 साल बीत जाने के बाद भी अंग्रेजी सर्वत्र पटरानी बनी बैठी है। दूसरी ओर हिंदी को दासी का दर्जा मिला हुआ है। भारत में हिंदी की मौजूदा स्थिति को देखकर तो यही लगता है कि हिंदी के लिए देश में बड़ा अभियान छेड़ने की आवश्यकता है। राजनेता भी हिंदी की दशा को सुधारने के लिए भाषण के अलावा कुछ नही करते है।
जिस देश की जो भाषा है उसी में देश के न्याय, कानून, राजकाज, कौंसिल आदि का कामकाज होना चाहिए। लेकिन देश का दुर्भाग्य है कि जिस भाषा को देश के अधिकतर लोगों को परिचय तक नही है उस भाषा में कई कार्य होते है। आज हमारे समाज में जो स्थिति हिंदी की है उसको देखकर यही आभास होता है कि हमारे घरों में माता पिता को घर से बाहर निकाल दिया गया है और उनका स्थान मम्मी डैडी ने ले लिया है। यही हाल बुआ, मौसी, चाची, ताई, मामी आदि का है जो आंटी बन गई है ,और मामा , मौसा, चाचा, ये सारे अंकल। यहां तक कि गुरु का नाम भी अब टीचर रह गया है। आज के पढ़े लिखे लोग भी अंग्रेजी बोलने लिखने को अपनी शान समझते है जबकि हिंदी को हीन भावना से देखते है। अब तक मातृ भाषा को माँ की तरह नही मानोगे तब तक हिंदी का मान कैसे बढेगा।
जब भी हिंदी दिवस आता है मुझे भी पं. विद्यानिवास मिस्र की लिखी हुई ये पंक्तियां याद आ रही है।
" काश 14 सितंबर न आता, हिंदी दिवस के नाटक देखने सुनने की घटना झेलनी नहीं पड़ती। वास्तविकता तो यही है कि यह ' हिंदी दिवस नही, हिंदी प्रेमियों को दुःख पहुंचाने वाला दिवस है।"