अमृत कुमार तिवारी
भारत सरकार भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को 'शहीद' नहीं मानती है। कहने को तो 23 मार्च 'शहीद दिवस' के नाम से मशहूर है। बचपन से यही बताया गया कि इसी दिन आजादी की लड़ाई लड़ने वाले भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को अंग्रेजी हुकूमत ने फांसी पर चढ़ा दिया था। बचपन की स्कूली किताबों में भी इनकी शहादत की दास्तानें पढ़ाई गईं।
लेकिन, जब बड़े हुए तब पता चला कि भगत सिंह के फ्रीडम-फाइटर और चरमपंथी होने को लेकर देश में ही डिबेट है। यहां तक कि भारत सरकार के दस्तावेजों में भगत सिंह और उनके साथ राजगुरु तथा सुखदेव को शहीद का दर्जा तक हासिल नहीं है।
कई सालों से शहीद का दर्जा दिलाने के लिए भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के परिवार वाले आज भी संघर्ष कर रहे हैं। इन वीर सपूतों के वंशज एक बार फिर दिल्ली पहुंचे हुए हैं और शहीद का हक दिलाने के लिए अनिश्चित कालीन भूख-हड़ताल पर बैठे हैं। इनकी मांग है कि भारत सरकार इन्हें शहीद घोषित करे।
दरअसल, देश में कई ऐसी बातें हैं जिनको लेकर हमारा ज्ञान अधूरा है। यह भी कह सकते हैं कि हमारे ज्ञान को उस दिशा में बढ़ने से रोक दिया गया। मतलब सरकारों ने अपनी सुविधा के हिसाब से स्कूली ज्ञान बांटने का काम किया।
साल 2013 में कांग्रेस सरकार के दौरान एक आरटीआई में इस बात का खुलासा हुआ कि केंद्र सरकार भगत सिंह को दस्तावेजों में शहीद नहीं मानती है। उस दौरान से भगत सिंह के वंशज उनके और उनके साथी सुखदेव और राजगुरु को सरकारी रिकॉर्ड में शहीद घोषित कराने के लिए लड़ाई लड़ रहा है। 'भगत सिंह ब्रिगेड' के बैनर तले यह मुहिम उसी दौरान से जारी है और अब अनिश्चित कालीन अनशन पर आ गई है। सिंतबर 2016 में भी इसी मांग को लेकर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के वंशज पंजाब के जलियांवाला बाग से दिल्ली के इंडिया गेट तक शहीद सम्मान जागृति यात्रा निकाली थी। लेकिन, किसी ने इस बात की तरफ सुध ही नहीं ली।
देश के राजनेता वैसे तो बड़ी-बड़ी डिंगे हांकते हैं। भगत सिंह और उनके साथियों का गुणगान करते नहीं थकते। जाति विशेष के लिए आरक्षण के नाम पर बड़ी-बड़ी रैलियां निकाल दी जाती हैं। बड़े स्तर पर बवाल मचा दिया जाता है। राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए हमारे राजनेता अक्सर विधानसभा और संसद को ठप कर देते हैं। लेकिन, सोचिए क्या इन राजनेताओं ने कभी भगत सिंह और उनके साथियों को शहीद का सम्मान दिलाने के लिए संसद का घेराव किया? क्या कभी इस मामले में सदन ठप हुआ? क्या कभी इस मामले में किसी भी जाति विशेष के लोगों ने रैलियां निकाली?
अभी भी कोई सुध नहीं ले रहा है। परिवार आमरण अनशन पर है, लेकिन एक न्यूज़ क्लिप भी टेलीवीजन में नहीं दिखाई दी। अभी न्यूज़ का कारोबार भी राज्यसभा चुनाव में चल रहे जोड़-तोड़ की ख़बरें ब्रेक करने में जुटा है। खुलेआम खरीद-फरोख्त की चर्चा है। ऐसे नेता जो जोड़-तोड़ की राजनीति से जब चुनकर संसद में आएंगे तो भला उन्हें कहां पीड़ होगी कि वे आजादी के परवानों के बारे में सोच सके।
अगर बारीकी से देखें तो पाएंगे कि यह देश उसूलों और तहजीब से काफी दूर छिटककर पॉलिटिकल अय्याशी में मशगूल है। पॉलिटिक्स आज के दौर में एक अय्याशी है। यहां मुद्दों से ज्यादा शतरंज की तर्ज पर मोहरों को तबाह किया जाता है और एक दूसरे के वजीर को मात देने की जद्दोजहद चलती रहती है।
हालांकि, इस खालिस राजनीति के स्वार्थ-तंत्र में भी भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव समेत देश के सभी शहीदों के परिजनों के साथ आवाम की संवेदनाएं हैं। यही वजह है कि इस मुद्दे पर कुछ बातें लिखी जा रही हैं और आप जैसे लोग इसे पढ़ भी रहे हैं। उम्मीद है कि भगत सिंह के परिजनों की यह लड़ाई सिर्फ उनकी नहीं बल्कि देश के हर नागरिक की होगी और वीर सपूतों को सरकारी दस्तावेज में शहीद का दर्जा दिया जाएगा।
(नोट: अमृत कुमार तिवारी समाचार फर्स्ट के संपादक हैं और उपरोक्त आर्टिकल उनके निजी विचार हैं।)