देश के स्वंतन्त्रता आंदोलन में हिमाचल प्रदेश के योगदान का उल्लेख जिला सिरमौर के राजगढ़ तहसील के ‘पझौता’ जनपद के वैदय सूरतसिंह के जिक्र के बिना अधूरा है l
वैद्य सूरतसिंह का जन्म 8 दिसम्बर,1912 को राजगढ़ तहसील के चाखल गाँव में हुआ था । प्रारम्भिक शिक्षा संस्कृत गुरुकुल से प्राप्त कर सूरतसिंह ने विशारद पंजाब विश्वविद्यालय लाहौर से किया। ऋषिकेश आयुर्वेदिक कालेज से विशारद की पढ़ाई के दौरान युवा सूरतसिंह गांधीजी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित हुए और असहयोग आंदोलन में सक्रिय भाग लेने लगे । आयुर्वेदाचार्य की उपाधि प्राप्त करने के बाद सूरतसिंह ने अपने पैतृक गांव में उपचार कार्य प्रारम्भ कर दिया और अपने गाँव व आसपास के क्षेत्र में घोड़े पर सवार हो कर रोगियों के उपचार के लिए जाते ।
वैद्य जी के नाम से विख्यात वैद्य सूरतसिंह वर्ष 1939 में सिरमौर प्रजामण्डल आंदोलन में कूद पड़े । वास्तव मे प्रजामंडल आंदोलन भारत छोड़ो आंदोलन की ही एक कड़ी थी जिसमे रियासतों के राजाओं की दमनकारी नीतियों के प्रति विद्रोह था l ये वही राजा थे जो अंग्रेजों के शासन का समर्थन कर रहे थे। वैदय सूरत सिंह ने सिरमौर रियासत के महाराजा राजेन्द्रप्रकाश के प्रति बगावत का बिगुल बजा कर सिरमौर रियासत के अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के साथ मिल कर टपरोली में एक भारी जनसभा आयोजित की और पझौता आंदोलन के नायक बने।
10 जून,1943 को वैदय सूरतसिंह का तीन मंजिला मकान सेना और पुलिस ने डायनामाइट से उड़ा दिया और 11 जून,1943 को आंदोलनकारियों पर गोलियां बरसाईं गयी जिसमें कुलथ गाँव के कामना राम स्थल पर ही शहीद हुए और कई आंदोलनकारी जख्मी हुए । वैद्य सूरतसिंह सहित 69 आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया और जेल में उन पर अत्याचार किये गए । महाराजा के जन्म दिन पर बहुत से आंदोलन कारियों को छोड़ दिया लेकिन वैदय सूरतसिंह, बस्ती राम पहाड़िया और चेतसिंह को देश आजाद होने के सात मास बाद 17 मार्च,1948 को रिहा किया गया । जेल में वैदय सूरत सिंह ने बहुत सी कविताएँ और गीत लिखे । उनके एक गीत की पंक्तियाँ हैँ:
हमारी प्यारी जेल ने अपने वतन के वास्ते शैदा हमें बना दिया ।
पूछे अगर कसूर है- कहते हैं हम ज़रूर है इश्के-वतन का नूर हैजिसने हमें जगा दिया ।।
1953 में वैदय सूरतसिंह सिरमौर के शिलाई क्षेत्र से निर्विरोध विधायक चुने गए थे । वैद्य सूरतसिंह प्रदेश में कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे । हिमाचल निर्माता स्वर्गीय डॉ.परमार उन्हें बड़ा सम्मान देते थे।
30 अक्टूबर, 1992 को 80 वर्ष की आयु में उनका देहावसान उनके पैतृक गांव में हुआ । हॉब्ब्न में उनकी स्मृति में संगमरमर की प्रतिमा स्थापित की गई ।
(ऊपरोक्त विचार वरिष्ठ स्तंभकार विवेक अविनाशी के हैं। विवेक अविनाशी काफी लंबे अर्से से हिमाचल की राजनीति पर टिप्पणी लिखते रहे हैं और देश के नामचीन पत्र-पत्रिकाओं में इनके विचार पब्लिश होते रहे हैं।)