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किराया बढ़ोतरी: मेरा मुंसिफ़ ही मेरा क़ातिल है, मेरे हक़ में फैसला क्या देगा…

समाचार फर्स्ट डेस्क |

कहां तो तय था चराग़ां हर घर के लिए, कहां चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए।।

हिमाचल प्रदेश में चुनाव से पहले बीजेपी ने कई सपने दिखाए थे। जनहित और जनसरोकार की बात करने वाली बीजेपी आखिरकार कारोबारियों के आगे घुटने टेक दिए और जनता की जेब पर डांका डाल दिया। हाल ही में बस किराये में एकाएक 24 फीसदी की बढ़ोतरी इसका ज्वलंत उदाहरण है। एक झटके में न्यूनतम किराया 6 रुपया कर दिया गया। यानी अगर आप एक किलोमीटर का भी सफर तय करेंगे तो आपको अपनी जेब से 6 रुपये अदा करने होंगे। यह किराया पड़ोसी राज्यों से अधिक है। यहां तक कि दूसरे पहाड़ी राज्य उत्तराखंड से भी ज्यादा है। डीजल, पेट्रोल, रसोई गैंस की आसमान छूती कीमतों से हांफ रही जनता पर महंगाई की एक और गाज गिरा दी गई। यही नहीं यह फैसला उस वक्त आया जब प्राकृतिक आपदा से हिमाचल की जनता कराह रही है।

लोकतंत्र में जनता और उसके हित सर्वोपरि होते हैं। लेकिन, हिमाचल की बीजेपी सरकार ने इस दर्शन को ही बदल दिया। अब प्रदेश में जनहित का मुद्दा नहीं बल्कि व्यापारियों का मुद्दा पहले है। किराया बढ़ोतरी में सरकार पूरी तरह से प्राइवेट बस ऑपरेटरों के आगे घुटने टेक दिए। अगर थोड़ा टेक्निकल लफ्ज़ों में कहें तो जयराम सरकार में 'क्रोनी-कैपिटलिस्टों' की बल्ले-बल्ले है। क्रोनी कैपिटलिज्म एक टर्म है जिसे आपको समझना होगा। साधारण भाषा में कहें तो अगर सरकार किसी प्राइवेट फर्म को एक निश्चित सोच के जरिए लाभ पहुंचाने का काम करे तो वह क्रोनी-कैपिटलिज्म है। इसकी झलक किराया बढ़ोतरी में तो साफ-साफ दिखाई दे रही है। जिस तरह से प्राइवेट बस ऑपरेटर लगातार सरकार पर किराये में इजाफे के लिए दबाव बना रहे थे। सरकार ने बिना व्यापक मशवरा किए उनकी शर्तों के आगे लगभग झुक गई।

हालांकि, बीजेपी के ही केंद्रीय नेतृत्व पर फ्रांस के साथ राफेल डील में एक ख़ास पूंजीपति को लाभ पहुंचाने के साक्ष्य सार्वजनिक हो रहे हैं। देश का केंद्रीय नेतृत्व पहले से ही क्रोनी-कैपिटलिज्म को बढ़ावा देने का आरोप झेल रहा है। ऐसे में हिमाचल सरकार अगर इस तहजीब को आगे बढ़ाती है तो कोई आश्चर्य नहीं है। हां, दुख जरूर है। क्योंकि, चुनाव से पूर्व हर तरह के माफियाओं के अंत का बिगुल फूंका गया था। इसमें खनन माफिया, नशा माफिया, ट्रांसपोर्ट माफिया जैसे तत्वों को ध्वस्त करने की बात कही गई थी। लेकिन, आज की तारीख में परिवर्तन के नाम पर सिर्फ सरकार के हाइपोथेटिकल विज्ञापन होर्डिंग्स और बिल-बोर्ड पर दिखाई दे रहे हैं।

क्या किराया बढ़ोतरी ही एक मात्र उपाय था?

यह सवाल वाजिब तौर पर लाजमी है, क्योंकि सरकार के पास और भी रास्ते थे जिनके जरिए वह लोगों को और बस ऑपरेटरों को राहत दे सकती थी। आज की तारीख़ में पेट्रोल और डीजल के दाम आसमान छू रहे हैं। बस ऑपरेटरों को भी अधिक कीमत पर डीजल खरीदने पड़ रहे हैं। लेकिन, किसी भी प्रजातांत्रिक सिस्टम में गरीब, कामगार, बेरोजगार और कमजोर वर्ग का हित पहले देखा जाता है। मगर यहां हुआ एक दम उल्टा। पहले से ही महंगाई की मार से घायल आम आदमी की जेब पर सीधा डांका डाल दिया गया।

सरकार चाहती तो पेट्रोलियम पदार्थों में वैट और दूसरे टैक्सेज में कमी करके बस ऑपरेटरों को भी राहत दे देती और जनता के ऊपर भी किराया बढ़ोतरी की मार नहीं पड़ती। लेकिन, प्राकृतिक आपदा के चीख-पुकार में जिस तरह से सरकार ने किराया बढ़ाया वह ना सिर्फ कायराना बल्कि एक कमजोर नीति का मोजाहिरा भी है।

प्राइवेट बस ऑपरेटरों से इतनी दिललगी क्यों?

याद कीजिए जिस दिन प्राइवेट बस ऑपरेटरों ने पूरे प्रदेश में हड़ताल किया था। उस दौरान प्रदेश की परिवहन निगम एचआरटीसी को तकरीबन 1 करोड़ रुपये का लाभ हुआ था। पिछली सरकार में जो बसे यार्ड में जर्जर हो रही थीं, उन्हें बाहर निकाला गया और स्थिति को संभाल लिया गया।

अब सवाल उठता है कि हर स्थिति से निपटने में जब एचआरटीसी सक्षम है तो उसके हितों पर लात मारकर प्राइवेट बस ऑपरेटरों पर इतनी जरूरत से ज्यादा मेहरबानी क्यों? समाचार फर्स्ट ने कई मर्तबा आपको प्राइवेट बस ऑपरेटरों की गुंडागर्दी और गैरकानूनी तरीके से मालदार रूटों पर बसों के मनमाना संचालना की रिपोर्ट समय दर समय दिखाई है। यहां तक कि कई मामलों में हमने आरटीओ की मिलीभगत और शासन में बैठे बड़े लोगों के खिलाफ भी कई साक्ष्य दिखाए जिनसे जाहिर हुआ कि प्राइवेट बस ऑपरेटरों का सरकार से बहुत याराना है।

एचआरटीसी कहीं ना कहीं एक लोकहित की परिवहन संस्था है। इसके पास प्राइवेट ऑपरेटरों की तरह कम आय वाले रूटों पर नहीं चलने का विकल्प नहीं है। आज की तारीख में मालदार रूटों पर प्राइवेट वाहन पहले से ही दबदबा बना चुके हैं। जबकि, लोगों के लिए कम लाभ वाले रूटों पर एचआरटीसी का संचालन जारी है। ऐसे में इस व्यवस्था की मार आम जन के अलावा एचआरटीसी पर भी बड़े पैमाने पर पड़ने वाला है। वैसे भी समय-समय पर एचआरटीसी के कर्मचारी ही प्रदेश सरकार पर निगम को खत्म कर प्राइवेट ट्रांसपोर्ट माफियाओं को मजबूत करने के आरोप लगाते रहे हैं।

सरकार आप कौन हैं?

प्रजातंत्र में सरकार का अहम रोल होता है कि वह जनता के बारे में सोचे। कई मदों में घाटा उठाकर लोक-कल्याण पर सरकारें धन खर्च करती हैं। पहले से ही हिमाचल पर हजारों करोड़ों रुपये का कर्ज़ है। यह अलग बात है कि उसमें मंत्रियों और संतरियों के ही लग्ज़री बजट का बिल फाड़ा गया है। ऊपर से आपदा के संकट से जूझ रही जनता पर किराये की दोहरी मार। ऐसे में यह सवाल ज्वलंत हो जाता है कि आखिर सरकार आप हैं कौन? यह रवैया तो किसी जनहित से जुड़ी सरकार का नहीं होता। बल्कि, ऐसे फरमान तो इसी देश में 70 साल पहले औपनिवेशिक हुकूमत और राजे-रजवाड़े किया करते थे।

आम जनता में आर्थिक सुरक्षा से हटकर सामाजिक सुरक्षा की बात करें तो हिमाचल की स्थिति पहले से ज्यादा चिंताजनक हो गई है। कुछ हफ्तों पहले सिरमौर में एक दलित नेता की गाड़ियों से कुचलकर हत्या कर दी गई। फर्ज कीजिए यह घटना हरियाणा, दिल्ली या यूपी में हुई होती। वहां कि सरकार की खटिया खड़ी हो गयी होती। हालांकि, यहां गुनाह नेशनल मीडिया का भी है जो यहां कि दुर्दांत घटनाओं को प्राथमिकता नहीं देती। लेकिन, जरूरी नहीं कि मीडिया में मामला उठने के बाद ही सरकार हरकत में आए। अच्छी व्यवस्था में न्याय का पहलू किसी मीडिल मैन का मोहताज नहीं होता।

फजीहत और किरकिरी रोज का काम है

जब से बीजेपी की सरकार सत्ता में है। तब से फजीहत का क्रम जारी है। पहले वादों का पुलिंदा, फिर उनसे एक-एक करके मुकरना और विज्ञापन के सीमेट से ख्याली महल की ईंट रखना। यही वजह है कि विपक्ष को भी लगातार सरकार को घेरने का आसान मौका मिल जाता है। 

किराया बढ़ोतरी पर जिस तरह से पूर्व परिवहन मंत्री जीएस बाली ने सरकार को घेरा उस पर गौर करना गौर करना जरूरी है। चूंकि वह पहले प्रदेश के परिवहन मंत्री रह चुके हैं और कई स्थतियों से वाकिफ हैं। कई मौकों पर उन्होंने मीडिया के समक्ष किराया में इजाफे से लेकर एचआरटीसी के हितों की अनदेखी पर सवाल उठाते रहे हैं। हालांकि, राजनीतिक नजरिए से देखें तो उनके आरोपों में काफी हद तक सच्चाई है।

इसके अलावा बतौर विपक्ष पीसीसी अध्यक्ष सुक्खू और सीएलपी अग्निहोत्री ने किराया बढ़ोतरी पर जो सवाल उठाए हैं वह भी गौर करने वाला है। क्योंकि, सरकार के पास किराये में इजाफे के अलावा और भी उपाय थे। ऊपर से जिस माहौल में यह कदम उठाया गया वह भी मानवीय दृष्टिकोण से सही नहीं है। ऐसे में कहा जा सकता है कि सरकार ने विपक्ष के हाथ आसानी से एक बड़ा हथियार दे दिया। 

ऐसा क्यों है कि सरकार आसानी से विपक्ष को मुद्दा दे देती है। इसके दो ही पक्ष हो सकते हैं। या तो सरकार की नीति काफी लचर है या फिर वह किसी बदगुमानी का शिकार है। जिसमें जो मन करे धौंस के साथ कर डालना है। लेकिन याद रखना चाहिए कि लचर नीति ज्यादा दिन तक जनता नहीं झेलती है। वहीं, अगर बदग़ुमानी है तो पिछली कांग्रेस की सरकार को भी यही अहंकार हो गया था। नतीजा जनता ने आपकी झोली में वोट डालकर दिया। अगर इस स्थिति को सरकार समझे तो कम से कम अभी भी चार साला का लंबा वक्त है संभल जाए और जनहित के मुद्दों को तवज्जो दे ना कि प्राइवेट फर्म के मुद्दों को।

(ऊपरोक्त लेख समाचार फर्स्ट के संपादक अमृत तिवारी के निजी विचार हैं।)