दो दिन से श्रद्धा शुरू हो गए हैं। अश्विन मास के कृष्ण पक्ष के समय सूर्य कन्या राशि में स्थित होता है और सूर्य के कन्यागत होने से ही इन 16 दिनों को कनागत कहा जाता है। पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं और तृप्त करने की क्रिया और देवताओं, ऋषियों या पितरों को तंडुल या तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को तर्पण कहते हैं। तर्पण करना ही पिंडदान करना है। श्राद्ध पक्ष का माहात्म्य उत्तर और उत्तर-पूर्व भारत में ज्यादा है।
सत्य और श्रद्धा से किए गए कर्म श्राद्ध और जिस कर्म से माता, पिता और आचार्य तृप्त हो वह तर्पण है। वेदों में श्राद्ध को पितृयज्ञ कहा गया है। यह पितृयज्ञ सम्पन्न होता है सन्तानोत्पत्ति और सन्तान की सही शिक्षा-दीक्षा से। इसी से 'पितृ ऋण' भी चुकता होता है। वेदानुसार यज्ञ पांच प्रकार के होते हैं- (1) ब्रह्म यज्ञ (2) देव यज्ञ (3) पितृयज्ञ (4) वैश्वदेव यज्ञ (5) अतिथि यज्ञ। उक्त 5 यज्ञों को पुराणों और अन्य ग्रंथों में विस्तार दिया गया है। उक्त 5 यज्ञ में से ही एक यज्ञ है पितृयज्ञ। इसे पुराण में श्राद्ध कर्म की संज्ञा दी गई है।
श्राद्ध पक्ष में व्यसन और मांसाहार पूरी तरह वर्जित माना गया है। पूर्णत: पवित्र रहकर ही श्राद्ध किया जाता है। श्राद्ध पक्ष में शुभ कार्य वर्जित माने गए हैं। रात्रि में श्राद्ध नहीं किया जाता। श्राद्ध का समय दोपहर साढे़ बारह बजे से एक बजे के बीच उपयुक्त माना गया है। कौओं, कुत्तों और गायों के लिए भी अन्न का अंश निकालते हैं क्योंकि ये सभी जीव यम के काफी नजदीकी हैं।
व्यक्ति जब देह छोड़ता है तो जाग्रत, स्वप्न, सुसुप्ति की स्थिति अनुसार तीन दिन के भीतर वह पितृलोक चला जाता है। इसीलिए 'तीज' मनाई जाती है। कुछ आत्माएं 13 दिन में पितृलोक चली जाती हैं, इसीलिए त्रयोदशाकर्म किया जाता है और कुछ सवा माह अर्थात 37वें या 40वें दिन। फिर एक साल तर्पण किया जाता है। पितृलोक के बाद उन्हें पुन: धरती पर कर्मानुसार जन्म मिलता है या वे ध्यानमार्गी रही हैं तो वे जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाती हैं।
हमारे जो पूर्वज पितृलोक नहीं जा सके या जिन्हें दोबारा जन्म नहीं मिला ऐसी अतृप्त और आसक्त भाव में लिप्त आत्माओं के लिए अंतिम बार एक साल बाद 'गया' में मुक्ति-तृप्ति का कर्म तर्पण और पिंडदान किया जाता है। गया के अतिरिक्त और कहीं भी यह कर्म नहीं होता है। उक्त स्थान का विशेष वैज्ञानिक महत्व है।
यजुर्वेद में कहा गया है कि शरीर छोड़ने के पश्चात्य, जिन्होंने तप-ध्यान किया है वे ब्रह्मलोक चले जाते हैं अर्थात ब्रह्मलीन हो जाते हैं। कुछ सतकर्म करने वाले भक्तजन स्वर्ग चले जाते हैं। स्वर्ग अर्थात वे देव बन जाते हैं। राक्षसी कर्म करने वाले कुछ प्रेत योनि में अनंतकाल तक भटकते रहते हैं और कुछ पुन: धरती पर जन्म ले लेते हैं। जन्म लेने वालों में भी जरूरी नहीं कि वे मनुष्य योनि में ही जन्म लें। इससे पूर्व ये सभी पितृलोक में रहते हैं वहीं उनका न्याय होता है।