हिमाचल प्रदेश की राजनीति मुख्यत बीजेपी और कांग्रेस दो दलों के इर्द गिर्द ही घूमती रही है। पहाड़ी प्रदेश में इन दोनों दलों का तोड़ निकालने के लिए तीसरे विकल्प के प्रयास तो हुए लेकिन वह सफल नहीं हो पाए। हां 1998 में प्रेम कुमार धूमल ने जरूर हिंविका को साथ लेकर सरकार बनाई थी और पहली बार हिमाचल के मुख्यमंत्री बने थे। उसके बाद कई दलों ने यहां तीसरे विकल्प के रूप में उभरने की कोशिश की परन्तु सफल नहीं हो पाए।
2012 के चुनावों में बीजेपी से नाराज़ होकर महेश्वर सिंह ने हिलोपा बनाकर आप, त्रिमूल कांग्रेस, एनसीपी और CPIM के साथ मिलकर बीजेपी को तो सत्ता से बाहर कर दिया लेकिन तीसरे विकल्प का सपना वह भी पूरा नही कर पाए। आखिरकार अपने घर बीजेपी में वापिस लौट आए।
इस सबके बाबजूद सीपीआईएम ने कभी हार नहीं मानी। सीपीआईएम हिमाचल के हर चुनाव का हिस्सा बनती है। इस मर्तबा भी सीपीआईएम डेड दर्जन सीटों पर चुनाव लड़ रही है। इन सीटों में तीन सीट ऐसी है जहां सीपीआईएम के धुरंधर कांग्रेस और बीजेपी को टक्कर देते नजर आ रहे हैं। इन सीटों में ठियोग से विद्या स्टोक्स के चुनावी मैदान से हट जाने के बाद राकेश सिंघा की बीजेपी के राकेश वर्मा के साथ सीधी टक्कर मानी जा रही है। यानी की ठियोग में दो राकेश के बीच कड़ा मुकाबला माना जा रहा है।
दूसरी सीट शिमला शहर है जहां पर शिमला मेयर रहे कॉमरेड संजय चौहान को कम आंका नहीं जा सकता है। इससे पहले भी संजय चौहान दो बार शिमला से चुनाव लड़ चुके हैं और दूसरे स्थान पर रहे है। तीसरी सीट कसुम्पटी है जहां से दूसरी बार डॉ कुलदीप तंवर सीपीआईएम की टिकट पर चुनाव लड़ रहे है। वह 2012 के चुनावों भी कांग्रेस बीजेपी के बाद तीसरे नंबर पर रहे थे हालांकि लगभग साढ़े तीन हज़ार से ज्यादा वोट लेकर वह अपनी जमानत नहीं बचा पाए थे।