हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में जंगलों के संरक्षण की एक अनूठी परंपरा सदियों से चली आ रही है। देव आस्था के साथ पेड़ों, जंगलों को पूजने की यह प्रथा महज अंधविश्वास नहीं, बल्कि पर्यावरण संरक्षण की एक कारगर युक्ति है, जिसे समझदार पूर्वजों ने सदियों पहले स्थापित कर दिया था। घाटी के लोग आज भी उस 'देव आज्ञा' का पूरी निष्ठा के साथ पालन करते हैं। कुछ जंगलों को देव आस्था से जोड़ दिया गया था, जहां कोई भी व्यक्ति पेड़-पौधों पर कुल्हाड़ी या दराट नहीं चलाता है।
सदियों से हो रहा नियमों का पालन
जंगलों को उनके प्राकृतिक स्वरूप में रहने दिया जाता है। जंगल से लकड़ी या पत्ते लाना भी निषिद्ध है। जंगल में कहीं आग न लग जाए, इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है और इसके लिए इन जंगलों के इर्द-गिर्द बसे गांवों का हर बाशिंदा धूम्रपान से भी परहेज करता है। इस तरह के नियमों को ये लोग देव आज्ञा मानते आए हैं। इन नियमों का पालन ये सदियों से कर रहे हैं। फोजल क्षेत्र सहित 8 ऐसे जंगल हैं, जिनमें दराट और कुल्हाड़ी नहीं चलती।
वन विभाग का भी करता है लोगों समर्थन
राज्य का वन विभाग भी गांव के लोगों का सहयोग और समर्थन करता है। इन जंगलों में वन विभाग कभी कटान नहीं करवाता। वन्य क्षेत्रों में बाहरी लोगों का प्रवेश वर्जित है और सूचना बोर्ड लगे हुए हैं। जंगलों की पवित्रता का पूरा ध्यान रखा जाता है। इस बात का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि शारीरिक शुद्धि के बिना कोई भी महिला-पुरुष इन जंगलों में प्रवेश नहीं कर सकता है।
देव आस्था से जुड़े हैं जंगल
स्थानीय लोग अंधविश्वासी कतई नहीं हैं, उन्हें अच्छी तरह से पता है कि इन नियमों का क्या महत्व है। इन जंगलों में से जो गांव के पास हैं और जिन्हें देव आस्था से जोड़ा गया है, उन्हें पूर्ण संरक्षण प्राप्त है। जबकि दूर-दराज स्थित जंगलों, जिन्हें देव आस्था से नहीं जोड़ा गया है, उनमें से रोजमर्रा के लिए घास, पत्ती और लकडियां लाने पर प्रतिबंध नहीं है।
देवताओं के नाम पर जंगल
लोगों ने जंगलों को देवताओं का नाम दे रखा है। इनमें लगवैली फॉरेस्ट बीट के फलाणी नारायण जंगल, पंचाली नारायण, माता फूंगणी व धारा फूंगणी जंगल मुख्य हैं। बंजार वेली में ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क का कुछ वन क्षेत्र, शांगड़ के साथ लगता जंगल, मणिकर्ण घाटी में पुलगा का जंगल और जीवनाला रेंज के तहत भी दो-तीन हेक्टेयर जंगल को प्राचीन समय से ही प्रतिबंधित रखा गया है।