चीन निर्मित सामान का बहिष्कार कर स्वदेशी अपनाने की भारत की नीति ने कुम्हारों के घर खुशियों से भर दिए हैं. अब इन लोगों की दिवाली भी सुखद हो रही है. मिट्टी के दीयों की मांग अब चार गुना से ज्यादा बढ़ गई है .अब ऐसे कार्यों से जुडे़ लोग न केवल आर्थिकी मजबूत कर रहे हैं बल्कि लोगों को रोजगार उपलब्ध करते हुए भारत की संस्कृति को संजोने में मदद कर रहे हैं.यहां बात रही है जिला कांगड़ा के उपमंडल ज्वालामुखी के तहत चौकाठ निवासी रवि प्रजापति की.
सामान्य दिखने वाले रवि प्रजापति पढ़े-लिखे हैं.अपने समय में इन्होंने जेबीटी डिप्लोमाऔर स्नातकोत्तर तक पढ़ाई की है.जेबीटी के आधार पर नौकरी के लिए दो बार कमीशन भी दिया, लेकिन सफलता नहीं मिली.इसके बाद पुश्तैनी काम शुरू किया.1989 से मिट्टी के घड़े और दीये बनाने शुरू किए.उस समय कुम्हार अधिकतर घड़े ही बनाते थे.ऐसे ही परिवार पालते रहे और समय के हिसाब और बाजार की मांग के अनुसार मिट्टी को ढालते रहे.अब रवि प्रजापति न केवल अच्छा खासा पैसा कमा रहे हैं, बल्कि अपने साथ गांव के 9-10 लोगों को रोजगार भी दे रहे हैं.
पांच छह साल पहले मिट्टी की दीयों की मांग कम थी.बड़ी मुश्किल से दिवाली पर 20 से 25 हजार दीये ही उनके यहां से जाते थे.जबसे चीन मोमबत्तियों का चलन कम किया है, तबसे हर दिवाली पर उन्हें कम से कम एक लाख दीये एडवांस में बनाकर रखने पड़ते हैं.
रवि प्रजापति ने घर में ही लघु उद्योग स्थापित किया है.वह अपने घर में 120 रुपये में 100 दीये देते हैं.बाजार में दुकानदार करीब दो रुपये प्रति दीया के हिसाब से बेचते हैं.
रवि प्रजापति खादी ग्रामोद्योग के तहत कुम्हारों के लिए लगाए जाने वाले प्रशिक्षण के प्रदेश ट्रेनर भी हैं.समय -समय पर वह प्रदेशभर के विभिन्न जिलों में जाकर लोगों को मिट्टी के बर्तन में अन्य सामग्री बनाने का प्रशिक्षण भी देते हैं.यही कारण है कि वह बाजार की मांग का खास ध्यान रखते हैं.
रवि प्रजापति का कहना है मिट्टी के सामान का चलन अब हिमाचल समेत पूरे देश में बढ़ा है और इसका मुख्य कारण चीन निर्मित सामान का बहिष्कार है.मिट्टी के दीये और अन्य सामान पर्यावरण संरक्षक होते हैं.साल में चार माह इन उत्पादों की मांग कम रहती है.अब लगता है कि उस समय नौकरी छोड़कर यह काम करने का निर्णय सही था.
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