हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनावों को लेकर सियासत पूरे उफान पर है. मानसून की बरसात अंधाधुंध बरस कर शांत हो रही है लेकिन नेता एक दूसरे के ऊपर खूब बरस रहे हैं. हिमाचल के दो मुख्य दल कांग्रेस एवं भाजपा एक दूसरे के ऊपर खूब छींटाकसी कर रहे हैं. कांग्रेस के नेताओं का कुनबा बिखर रहा है, भाजपा अपना कुनबा बढ़ा रही है. सुविधाओं की राजनीति के इस दौर में देश हित व जन हित से कहीं बढ़कर स्वयं का हित सर्वोपरि हो रहा है. राजनीति में घटते नैतिक मूल्य, बढ़ता लालच हावी हो रहा है. स्वार्थ सिद्ध करने के लिए नेता किसी भी हद तक जा सकते हैं.
मजबूत लोकतंत्र के लिए मजबूत विपक्ष का होना बहुत जरूरी है लेकिन मौजूदा हालात कुछ और ही बयान कर रहे हैं. विपक्ष बिखरा- बिखरा है. हिमाचल का चुनाव कांग्रेस व भाजपा दोनों के लिए अहम है.
यदि भाजपा रिवाज़ बदल देती है तो हिमाचल में हर पांच साल बाद सत्ता परिवर्तन का मिथ टूट जायेगा और भाजपा 2024 के लिए ओर अधिक मजबूत जायेगी. लेकिन कांग्रेस पार्टी के लिए हिमाचल ज़िंदगी व मौत जैसा है. क्योंकि यदि कांग्रेस के हाथ से हिमाचल फिसलता है तो भाजपा का कांग्रेस मुक्त भारत का नारा छतीसगढ़ व राजस्थान को हथियाने की राह को आसान कर देगा.
यही वजह है की भाजपा हिमाचल में धन बल व जोड़ तोड़ की राजनीति में लगी हुई है. इसमें ग़लत भी नही है, क्योंकि राज करने की निति को ही राजनीति कहा जाता है. कुछ भी हो लोकतंत्र में अंतिम फ़ैसले का अधिकार जनता के पास होता है. फिलहाल हिमाचल की जनता खामोश है, नेता शोर मचा रहे हैं. नेताओं को ये नहीं भूलना चाहिए की हिमाचल की जनता उनको आईना दिखाती रही है. इतना तो तय है नेता हिमाचल की जनता को बेबकूफ नहीं बना सकते हैं. हां विकल्पों की कम उपलब्धता जरूरी या फ़िर मजबूरी ?