Categories: हिमाचल

पढ़िए कारगिल के हीरो सौरभ कालिया और विक्रम बत्रा की विजयगाथा

<p>25 मई 1999 को हुए करगिल युद्ध में हिमाचल के 52 जवानों ने देश को बचाते-बचाते अपने प्राणों का त्याग कर दिया था। इस युद्ध में कांगड़ा जिले के सबसे अधिक 15 जवान शहीद हुए थे। मंडी जिले से 11, हमीरपुर के सात, बिलासपुर के सात, शिमला से चार, ऊना से दो, सोलन और सिरमौर से दो-दो जबकि चंबा और कुल्लू जिले से एक-एक जवान शहीद हुआ था। दो महीने से भी ज्यादा समय तक चले करगिल युद्ध में भारतीय सेना को मिली जीत की याद में हर साल 26 जुलाई को करगिल विजय दिवस के रुप में मनाया जाता है।</p>

<p><span style=”color:#000066″><strong>सौरभ कालिया</strong></span></p>

<p>सौरभ कालिया का जन्म 29 जून 1976 को अमृतसर, भारत में हुआ था। इनकी माता का नाम विजया और पिता का नाम डॉ. एनके कालिया है। इनकी शरुआती शिक्षा डीएवी पब्लिक स्कूल पालमपुर से हुई। इन्होंने स्नातक की डिग्री बीएससी मेडिकल हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय, पालमपुर से सन् 1997 में प्राप्त की। वे अत्यंत प्रतिभाशाली छात्र थे, और अपने कॉलोज को सालों में कई छात्रवृत्तियां भी प्राप्त कर चुके थे। अगस्त 1997 में संयुक्त रक्षा सेवा परीक्षा (सीडीएस) द्वारा सौरभ कालिया का चयन भारतीय सैन्य अकादमी में हुआ और 12 दिसंबर 1998 को वे भारतीय थलसेना में कमीशन अधिकारी के रूप में नियुक्त हुए। उनकी पहली तैनाती 4 जाट रेजिमेंट के साथ कारगिल सेक्टर में हुई। 31 दिसंबर 1998 को जाट रेजिमेंटल सेंटर, बरेली में प्रस्तुत होने के उपरांत वे जनवरी 1999 के मध्य में कारगिल पहुंचे।</p>

<p>सौरभ भारतीय थलसेना के एक अफ़सर थे जो कारगिल युद्ध के समय पाकिस्तानी सिक्योरिटी फोर्सेज़ द्वारा बंदी अवस्था में मार दिए गए। गश्त लगाते समय इनको और इनके 5 अन्य साथियों को ज़िंदा पकड़ लिया गया और उन्हें कैद में रखा गया, जहां इन्हें बहुत दुख दिए गए और फिर मार दिया गया। पाकिस्तानी सेना द्वारा प्रताड़ना के समय इनके कानों को गर्म लोहे की रॉड से छेदा गया, आंखें फोड़ दी गईं और निजी अंग काट दिए गए। इन सभी यातनाओं को उन्होंने हंसते-हंसते सहन कर लिया और देश की रक्षा के लिए मौत को गले लगा लिया।</p>

<p><span style=”color:#000066″><strong>विक्रम बत्रा</strong></span></p>

<p>विक्रम बत्रा का जन्म 9 सितंबर 1974 को हुआ। इनकी मात का नाम जीएल बत्रा और कमलकांता बत्रा है। इनकी माता की श्रीरामचरितमानस में गूढ़ श्रद्धा होने के कारण उन्होंने अपने जुड़वा बेटों का नाम लव और कुश रखा। लव यानी विक्रम और कुश यानी विशाल। पहले डीएवी स्कूल, फिर सेंट्रल स्कूल पालमपुर में दाखिल करवाया गया। सेना छावनी में स्कूल होने से सेना के अनुशासन को देख और पिता से देश प्रेम की कहानियां सुनने पर विक्रम में स्कूल के समय से ही देश प्रेम तीव्र हो उठा। पढ़ाई के क्षेत्र में विक्रम अव्वल नहीं थे, बल्कि टेबल टेनिस में अव्वल दर्जे़ के खिलाड़ी होने के साथ उनमें सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर भाग लेने का भी जज़्बा था। जमा दो तक की पढ़ाई करने के लिए चले चंडीगढ़ चले गए और डीएवी कॉलेज चंडीगढ़ से ही साईंस में ग्रेजुएशन की। इस दौरान वह एनसीसी के सर्वश्रेष्ठ कैडेट चुने गए और गणतंत्र दिवस की परेड में भी भाग लिया। उन्होंने सेना में जाने का पूरा मन बना लिया और सीडीएस की भी तैयारी शुरू कर दी। हालांकि, विक्रम को इस दौरान हांगकांग में मर्चेन्ट नेवी में भी नौकरी मिल रही थी जिसे उन्होंने ठुकरा दिया।</p>

<p>जुलाई 1996 में उन्होंने भारतीय सैन्य अकादमी देहरादून में प्रवेश लिया। दिसंबर 1997 में प्रशिक्षण समाप्त होने पर उन्हें 6 दिसम्बर 1997 को जम्मू के सोपोर नामक स्थान पर सेना की 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली। 1999 में उन्होंने कमांडो ट्रेनिंग के साथ और भी कई प्रशिक्षण भी लिए। इसके बाद 1 जून 1999 को उनकी टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया। हंप और राकी नाब स्थानों को जीतने के बाद विक्रम को कैप्टन बना दिया गया। इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्त्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से आज़ाद करवाने की जिम्मेदारी कैप्टन बत्रा की टुकड़ी को मिली। बहुत दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद भी विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 को सुबह 3 बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को अपने कब्जे में ले लिया।</p>

<p>विक्रम बत्रा ने जब इस चोटी से रेडियो के जरिए अपना विजय उद्घोष &lsquo;यह दिल मांगे मोर&rsquo; कहा तो सेना ही नहीं, बल्कि पूरे भारत में उनका नाम छा गया। इसी दौरान विक्रम के कोड नाम शेरशाह के साथ ही उन्हें &lsquo;कारगिल का शेर&rsquo; की भी संज्ञा दे दी गई। अगले दिन चोटी 5140 में भारतीय झंडे के साथ विक्रम बत्रा और उनकी टीम का फोटो मीडिया में खूब छाया। इसके बाद सेना ने चोटी 4875 को भी कब्जे में लेने का अभियान शुरू कर दिया और इसके लिए भी कैप्टन विक्रम और उनकी टुकड़ी को जिम्मेदारी दी गयी। उन्होंने जान की परवाह न करते हुए अपने साथियों के साथ, जिनमे लेफ्टिनेंट अनुज नैयर भी शामिल थे, उन्होंने कई पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतारा। अपने अदम्य साहस के लिए कैप्टन विक्रम बत्रा को 15 अगस्त 1999 को भारत सरकार द्वारा मरने के उपरांत उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया जो 7 जुलाई 1999 से प्रभावी हुआ।</p>

Samachar First

Recent Posts

गगल एयरपोर्ट विस्तार: हाईकोर्ट ने प्रभावितों को भूमि से न हटाने का आदेश

Gaggal Airport Expansion Case : हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने गगल हवाई अड्डे के विस्तारीकरण मामले…

3 hours ago

दडूही पंचायत के ग्रामीण बोले, “नगर निगम में शामिल नहीं होना चाहते”

Himachal Villagers Protest Tax Burden: हमीरपुर जिले की दडूही पंचायत के  ग्रामीण सोमवार को उपायुक्त…

6 hours ago

नाहन के चौगान मैदान में खो-खो का रोमांच

Nahan Kho-Kho Tournament: सिरमौर जिला मुख्यालय नाहन के ऐतिहासिक चौगान मैदान में अंतर महाविद्यालय खो-खो…

6 hours ago

हमीरपुर में भाजपा ने जोड़े 1.05 लाख नए सदस्य, गुटबाजी के आरोप खारिज

Hamirpur BJP Membership Drive: हिमाचल प्रदेश में 3 सितंबर से शुरू हुए भारतीय जनता पार्टी…

6 hours ago

कांग्रेस नेता बोले, विकट परिस्थितियों में जनता के लिए फैसले लिए, भाजपा करती रही षड्यंत्र

Himachal Congress vs BJP: कांग्रेस के पूर्व मुख्य प्रवक्ता प्रेम कौशल ने भाजपा के 11…

6 hours ago

हाईकोर्ट ने एचपीटीडीसी के होटलों को बंद करने के आदेश पर लगाई रोक

हाईकोर्ट ने हिमाचल प्रदेश पर्यटन विकास निगम (एचपीटीडीसी) के घाटे में चल रहे 9 और…

8 hours ago