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डल तोड़ना, मणिमहेश यात्रा: जब परंपराएं भी टूट जाएं, तो समझिए पहाड़ की पीड़ा कितनी गहरी है…

➤ मणिमहेश यात्रा में पहली बार डल तोड़ने की रस्म अधूरी रही
➤ भारी बारिश, भूस्खलन और बादल फटने से आस्था भी टूटी
➤ परंपरा के टूटने ने विकास मॉडल और प्रकृति संरक्षण पर उठाए सवाल

 

हिमालय की गोद में, जहां भगवान शिव का साक्षात वास माना जाता है, वहीं इस बार आस्था की डोर टूट गई। मणिमहेश यात्रा अधूरी रह गई, और ‘डल तोड़ने’ की वह प्राचीन रस्म, जिसे न कभी महामारी रोक सकी और न ही किसी आसुरी शक्ति ने ललकारा, पहली बार अंधाधुंध विकास और मानवीय असंवेदनाओं के थेपेड़े खा रही प्रकृति के प्रचंड क्रोध के आगे हार गई। यह केवल एक परंपरा का टूटना नहीं, बल्कि उन पीढ़ियों के विश्वास का बिखरना है, जो सदियों से हिमाचल की आत्मा में गूंजते आए हैं। जब आस्था की परंपराएं भी डगमगाने लगें, तो समझ लीजिए—पहाड़ की वेदना शब्दों से परे है। प्रस्तुत है औजस्‍वी चौहान की विशेष रिपोर्ट…

 

चंबा की धरती ने इस बार वह देखा है, जो न पहले किसी ने सोचा था और न ही कभी हुआ था। मणिमहेश यात्रा, आस्था और परंपरा का अद्वितीय संगम, पहली बार अधूरी रह गई। ‘डल तोड़ना’: वह पावन रस्म, जिसमें सांचुई गांव के पुजारी मणिमहेश झील को तैरकर पार करते हैं, इस बार नहीं हो पाई। कारण? वही जो पूरे हिमाचल को बार-बार झकझोर रहा है—भूस्खलन, बादल फटना और पहाड़ों पर प्रकृति का प्रचंड कहर।

यह केवल एक रस्म का टूटना नहीं है, यह हमारी संस्कृति की उस धारा का अवरुद्ध होना है जो सदियों से निर्बाध बहती आ रही थी। कोरोना जैसी वैश्विक महामारी में भी जब जन-जीवन ठहर गया था, तब भी पुजारियों ने हर हाल में यह परंपरा निभाई। लेकिन इस बार, पहाड़ों का जख्म इतना गहरा था कि पुजारियों को भी लौटना पड़ा।

प्रश्न यह है—क्या यह सिर्फ प्राकृतिक आपदा है या फिर हमारी नीतिगत लापरवाहियों की परिणति? पहाड़ों का अंधाधुंध कटान, नदियों के किनारों पर अनियोजित निर्माण, और विकास के नाम पर प्रकृति से छेड़छाड़… यह सब मिलकर पहाड़ को और कमजोर बना रहा है। नतीजा यह है कि अब सिर्फ घर-बार नहीं टूटते, बल्कि आस्थाएं भी डगमगाने लगी हैं।

फिर भी, आस्था का दीप बुझा नहीं। हजारों श्रद्धालु जब चंबा के चौगान में एकत्र हुए और पूजा-अर्चना की, तो यह संदेश साफ था कि परंपराएं परिस्थितियों से बड़ी होती हैं। चाहे झील तक पहुंच न हो पाए, लेकिन श्रद्धा हर दिल तक पहुंचती है।

मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने सही कहा कि इस बार की तबाही पहले से कहीं बड़ी है। लेकिन अब केवल हवाई सर्वेक्षण या मुआवज़े के ऐलान काफी नहीं होंगे। ज़रूरत है एक दीर्घकालिक नीति की, जो हिमाचल को बार-बार इस तरह की आपदाओं से बचा सके।

आज का यह क्षण चेतावनी भी है और अवसर भी। चेतावनी इसलिए कि अगर हमने समय रहते पहाड़ों की पीड़ा नहीं समझी, तो आने वाली पीढ़ियाँ न सिर्फ घर-खेत, बल्कि अपनी जड़ों और परंपराओं को भी खो देंगी। और अवसर इसलिए कि हम अपने विकास मॉडल पर फिर से विचार करें—ऐसा विकास जो प्रकृति के साथ हो, उसके विरुद्ध नहीं।

मणिमहेश की अधूरी रही रस्म हमें यही याद दिलाती है—जब परंपराएं भी टूटने लगें, तो समझ लीजिए कि पहाड़ का दर्द हमारी सोच से कहीं बड़ा है।

हिमाचल की आस्था की राजधानी चंबा ने इस बार ऐसा दृश्य देखा, जो इतिहास में पहले कभी दर्ज नहीं हुआ। मणिमहेश यात्रा केवल श्रद्धालुओं के कदमों की आहट से नहीं, बल्कि उन परंपराओं से भी पहचानी जाती है जो पीढ़ियों से निभाई जाती रही हैं। उन्हीं में से एक है ‘डल तोड़ना’ की पावन रस्म—एक ऐसी अनूठी परंपरा जिसमें सांचुई गाँव के पुजारी झील की गहराईयों को चीरते हुए उसे तैरकर पार करते हैं। यह केवल तैराकी नहीं, बल्कि विश्वास, साहस और सांस्कृतिक निरंतरता का प्रतीक मानी जाती है।

लेकिन इस बार, पहाड़ की पीड़ा इतनी गहरी थी कि यह रस्म पूरी नहीं हो सकी। मणिमहेश की अधूरी रही रस्म हमें यही याद दिलाती है—जब ‘डल तोड़ना’ जैसी परंपराएँ भी टूट जाएं, तो समझ लेना चाहिए कि पहाड़ का दर्द हमारी कल्पना से कहीं बड़ा है। यह केवल आस्था का संकट नहीं, बल्कि हमारे विकास मॉडल की विफलता का आईना भी है।