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“अब इमारत को देख कर बता पाएंगे भूकंप सहने की कितनी है क्षमता”

बीरबल शर्मा |

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मंडी के शोधकर्ताओं ने हिमालय क्षेत्र की इमारतों में भूकंप सहने की क्षमता के आकलन के लिए एक प्रक्रिया विकसित की है. यह आसान है और इसके आधार पर किसी इमारत के भूकंप सहने की क्षमता बढ़ाने के लिए आवश्यक कार्यों की प्राथमिकता तय की जा सकती है.

 

इस तरह मजबूतीकरण और मरम्मत का कार्य प्राथमिकता से पूरा होगा. शोध के निष्कर्ष बुलेटिन ऑफ अर्थक्वेक इंजीनियरिंग में प्रकाशित किए गए हैं. शोध प्रमुख हैं डॉ. संदीप कुमार साहा, सहायक प्रोफेसर, स्कूल ऑफ सिविल एवं एनवायर्नमेंटल इंजीनियरिंग, आईआईटी मंडी और सह-लेखक उनकी पीएचडी छात्रा सुश्री यती अग्रवाल हैं.

 

हिमालय दुनिया के सबसे अधिक भूकंप-संभावित क्षेत्रों में से एक है. इसकी वजह भारतीय और यूरेशियन प्लेटों का आपस में टकराना है. इसलिए इन क्षेत्रों में अक्सर भूकंप होते हैं जिनसे जीवन और संपत्ति दोनों का भारी नुक्सान होता है. 2005 में ग्रेट कश्मीर के भूकंप से कश्मीर के भारतीय हिस्से में भी 1,350 से अधिक लोगों की जानें गई.

 

कम से कम 100,000 लोग घायल हुए. हजारों घर और भवन बरबाद और लाखों लोग बेघर हो गए. भूकंप को रोका तो नहीं जा सकता है पर इमारतों और अन्य इंफ्रास्ट्रक्चर को विशेष डिजाइन के माध्यम से अधिक क्षतिग्रस्त होने से बचाया जरूर जा सकता है. उन्हें भूकंप सहने योग्य बनाया जा सकता है.

 

मौजूदा इमारतों की भूकंप सेे सुरक्षा सुनिश्चित करने का पहला कदम यह आकलन करना है कि वे किस पहलू में कमजोर और किस दृष्टिकोण से मजबूत हैं. लेकिन हर एक इमारत का भूकंप के दृष्टिकोण से कमजोरी का आकलन करना न तो वास्तविक रूप से और न ही आर्थिक रूप से आसान है. व्यापक स्तर पर इमारतों की कमजोरियों के आकलन के लिए अक्सर उनकी रैपिड विज़ुअल स्क्रीनिंग आरवीएस की जाती है.

 

आरवीएस किसी इमारत के विजुअल इंफॉर्मेशन से यह तय करता है कि वह सुरक्षित है या नहीं, या फिर क्या उसकी भूकंप सुरक्षा बढ़ाने के लिए तत्काल इंजीनियरिंग कार्य करना आवश्यक है.
कैसे काम करती है. आरएसवी प्रक्रिया विभिन्न देशों के डेटा पर काम करती है और भारतीय हिमालयी क्षेत्र विशेष पर सटीक लागू नहीं होती है.

 

क्योंकि इस क्षेत्र के भवनों की अपनी कुछ खास विशेषताएं हैं. उदाहरण के लिए हिमालयी क्षेत्र के बहुत-से भवन के निर्माण में सही इंजीनियरिंग नहीं होती है. निर्माण में लगे श्रमिकों को जानकारी कम होती है और अन्य भागीदारों की योजना भी सही नहीं होती है। इसलिए इंफ्रास्ट्रक्चर के डिस्ट्रिब्यूशन और ग्रोथ में एकरूपता नहीं होती है. ऐसे में क्षेत्र विशेष के अनुसार आरवीएस के दिशा निर्देशों को लागू करना आवश्यक है जिनके तहत स्थानीय निर्माण प्रक्रियाओं, टाइपोलॉजी आदि अहम् कारकों पर विचार किया जा सकता है.

 

डॉ. संदीप कुमार साहा ने का कहना है कि हम ने भारतीय हिमालयी क्षेत्र की रीइंफोस्र्ड कंक्रीट इमारतों के परीक्षण की प्रभावी प्रक्रिया विकसित की है. इससे किसी इमारत की वर्तमान स्थिति भूकंप से संभावित खतरों को न्यूनतम करने के लक्ष्य से मरम्मत कार्य की प्राथमिकता तय करना आसान होगा.

 

शोधकर्ताओं ने पूरे क्षेत्र का सर्वक्षण करते हुए हिमालय के मंडी क्षेत्र में मौजूद विभिन्न प्रकार के भवनों और इनकी सामान्य विशिष्टताओं के बारे में पर्याप्त डेटा एकत्र किए जो उनकेे लिए भूकंप के खतरों से जुड़े हैं. पहाड़ी इमारतों के आरवीएस के मद्देनजर मंजिलों की संख्या निर्धारण के दिशानिर्देश को संख्यात्मक अध्ययन भी किया गया. इसके अलावा इमारतों के कमजोर पहलुओं के आधार पर एक बेहतर आरवीएस प्रक्रिया लागू करने का प्रस्ताव दिया.

 

इमारतों की जांच की नई पद्धति: इमारतों की जांच की नई पद्धति में एक पृष्ठ का आसान आरवीएस फॉर्म भरना होता है। इसके लिए अधिक विशेषज्ञता नहीं चाहिए.

 

यह विभिन्न कमजोर पक्षों को ध्यान में रखता है जो केस स्टडी के तहत इस क्षेत्र की इमारतों में आमतौर पर पाए जाते हैं. इन अवलोकनों के आधार पर इमारतों के लिए भूकंपीय खतरों का स्कोर निर्धारित किया जाता है. इस तरह कमजोर इमारतों को मजबूत इमारतों से अलग वर्गीकरण करना संभव होता है और फिर उनकी सुरक्षा और मरम्मत का बेहतर निर्णय लेना आसान होता है. कंप्युटेशन इस तरह डिज़ाइन किया गया है कि किसी इमारत के स्कोर में किसी व्यक्ति के पूर्वाग्रह या व्यक्तिगत प्रभाव की गुंजाइश कम से कम हो.

 

शोध के लाभ बताते हुए सुश्री यती अग्रवाल, पीएचडी स्कॉलर, आईआईटी मंडी ने कहा, कि हमने यह दर्शाया है कि प्रस्तावित प्रक्रिया से पहाड़ी क्षेत्रों में रीइन्फोस्र्ड कंक्रीट से बनी इमारतों का भूकंप के सभावित खतरों के अनुसार वर्गीकरण करना संभव है.

 

हिमालयी क्षेत्र में इमारतों का जल्द से जल्द आकलन आवश्यक है. केवल इसलिए नहीं कि इस क्षेत्र में भूकंप का खतरा बना रहता है, बल्कि इसलिए भी कि पिछली दो शताब्दियों के सीजि़्मक गैप के चलते किसी भी समय बड़े भूकंप की आशंका है. इसलिए समय रहते इन क्षेत्रों की इमारतों को मजबूत करना जरूरी है. ताकि वे भविष्य के हल्के या फिर गंभीर भूकंप से भी क्षतिग्रस्त नहीं हों.