<p>सिरमौर, कुल्लू औऱ शिमला के ऊपरी क्षेत्रों में दीपावली के एक माह बाद बूढ़ी दीपावली मनाई जाती है। इन इलाकों में आज भी सदियों पुरानी अनूठी परंपरा का निर्वहन हो रहा है। यहां के अधिकांश गांवों में बूढ़ी दीपावली मनाई जाती है। अबकी बार भी इसे धूमधाम से मनाया जा रहा है। 14 वर्ष का वनवास पूरा होने के बाद सीताजी बहु बनकर घर आई थी तो ग्रामीण इलाकों में दीपावली मनाई गई।</p>
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<p>तब महालक्ष्मी के रूप में उनका अयोध्या में बूढ़ी महिलाओं ने जोरदार स्वागत किया था। लेकिन एक माह बाद अमावस्या के दिन बहुओं ने बूढ़ी महिलाओं को भी वहीं मान-सम्मान वापस दिया। उन्होंने सास की आरती उतारी। राम और सीता को जयमाला पहनाई। उसी याद में बूढ़ी दीपावली भी मनाई जाती है।</p>
<p>बूढ़ी दीवाली के दौरान रात में मशाल जलाई जाती है। इसे सुबह तक जलाए रखा जाता है। इन्हें स्थानीय भाषा में 'डाव' कहा जाता है। रात भर लोक वाद्ययंत्रों की थाप पर नाटियों का दौर चलता रहता है। कुल्लू के राम शरण का कहना है रामायण काल से वह बूढ़ी दीवाली का पर्व मनाते रहे हैं। इस दौरान सभी ग्रामीण एक जगह एकत्रित होकर मशालों के साथ नाच गाना करते हैं।</p>
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