हिमाचल प्रदेश के सिरमौर, कुल्लू, मंडी और शिमला के ऊपरी क्षेत्रों में दिवाली के एक महीने बाद बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है। इन इलाकों में आज भी सदियों पुरानी अनूठी परंपरा का निर्वहन हो रहा है। यहां के अधिकांश गांवों में बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है। बूढ़ी दिवाली के दौरान रात में मशालें जलाई जाती हैं जिसे सुबह तक जलाए रखा जाता है। इन्हें स्थानीय भाषा में ‘डाव’ कहा जाता है। रात भर लोक वाद्ययंत्रों की थाप पर नाटियों का दौर चलता रहता है।
मंडी और कुल्लू के इलाकों में मशालों व अश्लील जुमलों से भूत-पिशाच भगाए जाते हैं। इसमें अश्लील जुमले कसते हुए ढोल नगाड़ों की थाप पर नृत्य और पुरानी परंपरा का निर्वहन किया जाता है। बूढ़ी दिवाली में दो गांवों के लोगों के बीच लड़ाई भी होती है। दोनों गांवों के लोग मशालों से एक-दूसरे पर वार करते हैं। पहाड़ों में ये जश्न 2 से 4 दिन तक चलता है।
प्रचीन मान्यताओं के अनुसार, 14 वर्ष का वनवास पूरा होने के बाद जब माता सीता बहु बनकर घर आईं थीं तब महालक्ष्मी के रूप में उनका अयोध्या में बूढ़ी महिलाओं ने जोरदार स्वागत किया था। लेकिन एक माह बाद अमावस्या के दिन बहुओं ने बूढ़ी महिलाओं को भी वही मान-सम्मान वापस दिया। उन्होंने सास की आरती उतारी। राम और सीता को जयमाला पहनाई। उसी याद में बूढ़ी दीपावली भी मनाई जाती है। दिवाली के समय जहां दीये जलाने की रिवायत है, वहीं इन गांवों में मशालें जलाई जाती हैं।
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