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CM वीरभद्र ने भी किया ‘पद्मावती’ का विरोध, राजपूत राजाओं को कहा…

समाचार फर्स्ट डेस्क |

हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने फिल्म ''पद्मावती'' का विरोध किया है। उन्होंने फिल्म में शामिल दृश्य और डायलॉग को अश्लील बताया है। मुख्यमंत्री ने शशि थरूर के ट्वीट पर कहा कि ब्रिटिशकाल में महाराजाओं ने घुटने टेके होंगे, लेकिन उनके पूर्वज महाराजाओं ने कभी भी मैदान नहीं छोड़ा, बल्कि अंग्रेजों का डटकर सामना किया।

इससे पहले कांग्रेस के सांसद शशि थरूर ने ''पद्मावती'' मूवी की रिलीज पर चल रहे बवाल को लेकर एक ट्वीट किया था। जिसमें उन्होंने राजपूत राजाओं के अंग्रेजी शासनकाल में किए कार्यों पर तल्ख़ टिप्पणी की थी। हालांकि, बाद में सफाई देते हुए ट्विट किया "कुछ भाजपाई अंधभक्तों द्वारा साज़िशन झूठा प्रचार किया जा रहा है कि मैंने राजपूत समाज के सम्मान के ख़िलाफ़ टिप्पणी की है। मैंने राष्ट्रहित में अंग्रेज़ हकूमत के कार्यकाल का विरोध करते हुए ऊन राजाओं की चर्चा की थी जो स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेज़ के साथ थे।"

फिल्म निर्देश संजय लीला भंसाली द्वारा निर्देशित फिल्म 'पद्मावती' के रिलीज पर आशंका बनी हुई है। क्योंकि, राजपूत समाज का एक दल कारणी सेना ने इसकी रिलीज का विरोध किया है और राजपूत समुदाय का अपमान बताया है। राजपूत समाज का आरोप है कि मूवी के जरिए भंसाली ने उनके समाज के गौरव पर उंगली उठाई है। जबकि, भंसाली का कहना है कि फिल्म ऐसा कुछ भी आपत्तिनजनक सीन नहीं है, जिससे किसी समाज-विशेष की भावनाएं आहत हों।

फिल्म पर क्यों है विवाद?

फिल्म पद्मावती मध्यकाल के मशहूर कवि मलिक मोहम्मद जायसी के प्रसिद्ध काव्य 'पद्मवत' पर आधारति है। जिसके मुताबिक राजपूत रानी पद्मिनी के सुंदरता से आकर्षित होकर मुसलमान शासक खिलजी ने चित्तौड़ पर अटैक किया। इस दौरान युद्ध में कई तरह के दांव-पेच और शर्तों का जिक्र है। जिसमें एक शर्त खिलजी का है कि अगर पद्मिनी का दीदार करा दिया जाएगा, तो वह चित्तौड़ के राजा को रिहा कर देगा। 

क्वाय के मुताबिक खिलजी धोखे से चित्तौड़ के राजा को कैद करता है और दूसरी तरफ से पद्मिनी को हासिल करने के लिए चित्तौड़ पर आक्रमण भी कर देता है। इस दौरान अपनी मर्यादा की लाज के लिए पद्मिनी ने महल की दूसरी औरतों के साथ ''जौहर'' (आग में सामूहिक झुलसकर जान देना) कर लिया।

अब फिल्म को लेकर यह चर्चा है कि भंसाली ने एक सीन में रानी पद्मावती को खिलजी के साथ रोमांस करते दिखाया है। इस ख़बर के बाद फिल्म की शूटिंग के दौरान भंसाली के साथ मारपीट भी की गई थी। हालांकि, भंसाली का कहना है कि इसमें ऐसा कोई सीन नहीं है जिससे इतिहास के साथ छेड़छाड़ हुई हो।

क्या कहते हैं इतिहासकार

भारत के मध्यकालीन इतिहास के बारे में नामी इतिहासकार प्रोफेसर इरफान हबीब और प्रोफेसर रोमिला थापर के मुताबिक खिलजी के समय में चित्तौड़ की किसी पद्मिनी नाम की रानी का कोई जिक्र नहीं मिलता। इनके अलावा दूसरे इतिहासकार भी पद्मिनि को कवि मलिक मोहम्मद जायसी की एक कल्पना मानते हैं। मलिक मोहम्मद जायसी ने खिलजी शासन के 250 साल बाद पद्मावत की रचना की थी।

इतिहासकार इस बात पर एकमत हैं कि पद्मिनी एक काव्य-आधारित पात्र हैं। क्योंकि, खिलजी के शासनकाल से संबंधित किसी भी दस्तावेज में पद्मिनी का जिक्र नहीं है।

फिर पद्मिनी एक रोल-मॉडल कैसे बन गईं?

इतिहासकारों की बातों के बाद अब जिक्र उठता है कि आख़िर पद्मिनी कौन थी और कैसे एक राज्य के अभिमान के तौर पर स्थापित हो गईं। इस पर जानकारों के अलग-अलग पक्ष हैं। इसको लेकर कुछ चिंतकों का मत है कि मध्यकाल के दौरान भांट और चारण का विशेष महत्व था। जिस तरह आज के दौर में सिनेमा और टेलीवीजन सीरियल हैं। उसी तरह तब के भांट और चारण काव्य रूप या नाटक के जरिए लोगों को राजाओं से जुड़ी कहानी या फिर उनके युद्ध कौशल का बखान करते थे। अधिकांश तौर पर राजा खुद ही निजी प्रचार के लिए भांटों से अपने शौर्य और विजय का गुणकान कराते थे। इसी क्रम में पद्मिनी जैसे काव्य का भी स्थान जन-जन तक पहुंच गया और कालातंर में लोगों ने इसे एक तथ्य की तरह मान लिया।

एक टीवी साक्षात्कार में मशहूर फिल्म लेखक जावेद अख़्तर ने कहा कि पद्मिनी का तथ्य उतना ही सत्य है जितना कि मुग़ले-आज़म में अनारकली थी। क्योंकि, कभी भी सलीम और अनारकली का इश्क परवान चढ़ा ही नहीं था। यह लेखक की मात्र एक कल्पना थी। लेकिन, गौर रहे कि देश की बड़ी आवाम फिल्म के चलते अनारकली को मुग़ल-सल्तनत और बादशाह सलीम का अहम हिस्सा मानती है।

ब्रिटिशकाल में पद्मिनी से जुड़ा सेंटिमेंट

पद्मिनी का चरित्र स्वतंत्रता आंदोलन में एक रोल मॉडल के तौर पर कायम हुआ। अपने भाषण में सरोजनी नायडू ने पद्मिनी का जिक्र किया और आन-बान शान के प्रतीक के तौर बताया। हालांकि, जानकार बताते हैं कि अंग्रेजी हुकूमत के दौरान ''पद्मावत'' का व्यापक प्रचार-प्रसार जान-बूझकर कराया गया और उन्होंने 1857 की प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद ही इसका व्यापक प्रचार-प्रसार कराने में मदद की। इस दौर में पद्मिनी मुसलमान शासकों के जुल्मो-सितम की पीड़ित दिखाई देने लगीं। हिंदू ख़ासकर राजपूत समाज की आन-बान-शान के रूप में स्थापित होने लगीं। उस दौर में ही यह समाज का सेंटिमेंट दो धड़ों में बंटने लगा था। जिसमें एक समाज अपनी बहु-बेटियों की जुल्म के लिए ख़ास तौर पर दूसरे समाज को गुनहगार की तरह देखने लगा। इसका सीधा फायदा अंग्रेजों को था।

हालांकि, यह भी इतिहास के सामाजिक मनोविज्ञान का एक विश्लेषण मात्र ही है। इसमें कितनी सच्चाई थी इसका कोई ठोस आधार नहीं है। क्योंकि, उस वक़्त भी इसको लेकर किसी के पास कोई साक्ष्य नहीं है।

देश न्याय-व्यवस्था से चलेगा या भीड़ के ब्लैकमेलिंग से?

फिल्म पद्मावती के रिलीज को लेकर देश में कई संस्थाएं जो इसके बैन पर विचार कर सकती हैं। इस पर पहला नंबर ही सेंसर बोर्ड का आता है। क्योंकि, फिल्मों से जुड़ी हार्मफुल कंटेंट को पहले ही बाहर रखने की पहरेदारी बोर्ड करता है। इसके अलावा अगर किसी को दिक्कत है तो वह न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है। न्यायपालिका भारतीय लोकतंत्र का एक मजबूत स्तंभ है। हर मौके पर न्यायालय ने देश को रास्ता दिया है और संवैधानिक तरीके से नागरिक के अधिकारों में कर्तव्यों की वक़्त-वक़्त पर व्याख्या करता रहा है।

ध्यान देने वाली बात यह भी है कि पद्मवती को लेकर भी एक ग्रुप इलाहाबाद हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। लेकिन, कोर्ट ने उसे सेंसर बोर्ड की जिम्मेदारी बताकर सुनवाई खारिज कर दी थी। कोर्ट से मामला रद्द होने के बाद एक तबका इसके रिलीज पर बैन लगाने की मांग पर अड़ा है। साथ ही साथ इसे रिलीज करने की सूरत में अंजाम भुगतने की भी धमकी दी जा रही है। हालांकि, ऐसे वक़्त में सरकारों की भी असल परीक्षा होती है कि वे कैसे देश के लोकतांत्रिक एवं संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करती हैं।

लिहाजा, 'पद्मावती' फिल्म एक विवाद ही नहीं है बल्कि अब भारत के लोकतंत्र की एक कसौटी भी बन गई है (हालांकि, इससे पहले भी कई फिल्में बैन होती रही हैं)। क्योंकि, भारतीय जनतंत्र को अब एक मेच्योर तंत्र की तरह देखे जाने की बात कही जाती है। ऐसे में जनता क्या लोकतांत्रिक तरीके से इस विवाद का समाधान करेगी या फिर गुंडई और भींड़ के ब्लैकमेलिंग के जरिए।