<p>कंधे पर मां का शव उठाते चल रहे बेटे का दर्द समाज का दर्द क्यों नहीं बन पाया अब इसकी टीस सबको है। कांगड़ा की तस्वीर ने सबको बिचलित किया वीभत्स तस्वीर सत्ता के गलियारों तक भी पहुंची। सवाल ये खड़ा होता है कि अब इस तरह की सामाजिक रस्मों की अदायगी भी सरकार के आदेशों पर करनी पड़ेगी। क्या हम इतने संवेदनहीन हो गए की देवभूमि में भी इस तरह की तस्वीरें देखने को मिले।</p>
<p>ऐसे बुरे वक्त में ही राजा से लेकर प्रजा का इम्तिहान होता है। अच्छे वक़्त में तो आपके साथ सभी खड़े होते है लेकिन जो बुरे वक्त में चट्टान की तरह खड़े रहते है उन्ही लोंगो को इतिहास याद रखता है। कोरोना का मुश्किल वक़्त भी गुजर जाएगा लेकिन एक पाठ आपको पढ़ा कर जाएगा। दुनिया की क्या हक़ीक़त है ये सीखा कर जाएगा। जिन्होंने अपनो को खोया वह ताउम्र इस काल को याद रखेंगे। लेकिन जिन्होंने अपनों को खोया उस वक़्त उनके साथ कोई खड़ा नही हुआ ये ज़ख्म हमेशा हरा रहेगा।</p>
<p>ऐसे बुरे वक्त में जब समाज आंखे मूंद ले तो हिम्मत सहारा देती है। उस बेटे की इससे बड़ी हिम्मत क्या होगी जिसने कोरोना से पीड़ित मृत्यु को प्राप्त हुई मां को अपने कंधे पर ही शमशान तक पहुंचा दिया। ये हिम्मत उसकी नही उस दूध की थी जिसकी कीमत जीते जी क्या मरने के बाद भी कोई नही चुका पाया। वक़्त बुरा है लेकिन याद रखिये ये एक युवक की कहानी नही समाज की कहानी बन जाएगी यदि समाज मे ऐसी तस्वीरें आती रहेंगी?</p>
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