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मुहर्रम: कर्बला में ऐसा क्या हुआ था जिसका मातम मनाते हैं शिया

समाचार फर्स्ट डेस्क |

आज मुहर्रम का सबसे अहम दिन रोज-ए-आशुरा है। जब बात मुहर्रम की होती है तो सबसे पहले जिक्र कर्बला का किया जाता है। आज से लगभग 1400 साल पहले तारीख-ए-इस्लाम में कर्बला की जंग हुई थी। ये जंग जुल्म के खिलाफ इंसाफ के लिए लड़ी गई थी।

इस जंग में पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों को शहीद कर दिया गया था। इसलिए कहा जाता है इस्लाम जिंदा होता है हर कर्बला के बाद। आइए जानें कर्बला की जंग में क्या हुआ था…

इस्लाम की जहां से शुरुआत हुई,  मदीना से कुछ दूरी पर मुआविया नामक शासक का दौर था। मुआविया के इंतकाल के बाद शाही वारिस के रूप में उनके बेटे यजीद को शाही गद्दी पर बैठने का मौका मिला। लोगों के दिलों में बादशाह यजीद का इतना खौफ था कि लोग यजीद के नाम से ही कांप उठते थे।

पैगंबर मोहम्मद के वफात के बाद यजीद इस्लाम को अपने तरीके से चलाना चाहता था। जिसके लिए यजीद ने पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन को उसके मुताबिक चलने को कहा और खुद को उनके खलीफे के रूप में स्वीकार करने के लिए कहा। यजीद को लगता था कि अगर इमाम हुसैन उसे अपना खलीफा मान लेंगे तो इस्लाम और इस्लाम के मानने वालों पर वे राज कर सकेगा।

हुसैन को ये बिल्कुल मंजूर नहीं था और हुसैन ने यजीद को अपना खलीफा मानने से इंकार कर दिया। यजीद से हुसैन का इंकार करना सहन नहीं हुआ और वह हुसैन को खत्म करने की साजिशे करने लगा। यजीद की बात न मानने के साथ ही हुसैन ने अपने नाना पैगंबर मोहम्मद का शहर मदीना छोड़ने का भी फैसला किया।

मुहर्रम की दूसरी तारीख को जब हुसैन कर्बला पहुंचे थे। उस समय उनके साथ एक छोटा सा लश्कर था, जिसमें औरतों से लेकर छोटे बच्चों तक कुल मिलाकर 72 लोग शामिल थे।

इसी दौरान कर्बला के पास यजीद ने उनके काफिले को घेर लिया और खुद को खलीफा मानने के लिए उन्हें मजबूर किया। लेकिन इमाम हुसैन ने यजीद को खलीफा मानने से इंकार कर दिया।

 हुसैन के कर्बला पहुंचने के बाद मुहर्रम की 7 तारीख को  इमाम हुसैने के पास खाने पीने की जितनी भी चीजें थीं वे सभी खत्म हो चुकीं थीं। ये देखकर यजीद ने हुसैन के लश्कर का पानी भी बंद कर दिया था। मुहर्रम की 7 तारीख से 10 तारीख तक इमाम हुसैन और उनके काफिले के लोग भूखे प्यास रहे। लेकिन इमाम हुसैन सब्र से काम लेते रहे और जंग को टालते रहे।

हर ढलते दिन के साथ यजीद के जुल्म बढ़ते ही जा रहे थे। ये देखने के बाद इमाम हुसैन ने अपने काफिले में मौजूद लोगों को वहां से चले जाने की के लिए कहा। लेकिन कोई भी हुसैन को छोड़कर वहां से नहीं गया।

मुहर्रम की 10 तारीख को यजीद की फौज ने हुसैन और उनके साथियों पर हमला कर दिया। यजीद बहुत ताकतवर था। यजीद के पास हथियार, खंजर, तलवारें थीं. जबकि हुसैन के काफिले में सिर्फ 72 लोग ही थे।

इसी जंग के दौरान मुहर्रम की 10 तारीख को यजीद की फौज ने इमाम हुसैन और उनके साथियों का बड़ी बेरहमी के साथ शहीद कर दिया। उनमें हुसैन के 6 महीने के बेटे अली असगर, 18 साल के अली अकबर और 7 साल के उनके भतीजे कासिम (हसन के बेटे) भी शहीद हो गए थे।
 
यही वजह है कि मुहर्रम की 10 तारीख सबसे अहम होती है, जिसे रोज-ए-आशुरा कहते हैं.
हुसैन को शहीद करने के बाद यजीद ने अहले बैत समर्थकों के घरों में आग लगा दी। इसके बाद  काफिले में मौजूद लोगों के घरवालों को अपना कैदी बना लिया था।

कर्बला में इस्लाम के हित में जंग करते हुए इमाम हुसैन और उनके परिवार के लोग मुहर्रम की 10 तारीख को शहीद हुए थे। हुसैन की उसी कुर्बानी को याद करते हुए मुहर्रम की 10 तारीख को मुसलमान अलग-अलग तरीकों से दुख जाहिर करते हैं।  शिया लोग अपना दुख जाहिर करने के लिए मातम करते हैं, मजलिस पढ़ते हैं।

मुहर्रम का चांद दिखाई देते ही सभी शिया समुदाय के लोग गम में डूब जाते हैं। शिया महिलाएं और लड़कियां चांद निकलने के साथ ही अपने हाथों की चूड़ियों को तोड़ देती हैं। इतना ही नहीं वे सभी श्रृंगार की चीजों से भी पूरे 2 महीने 8 दिन के लिए दूरी बना लेती हैं।

मुहर्रम का चांद दिखने के बाद से ही सभी शिया मुस्लिम पूरे 2 महीने 8 दिनों तक शोक मनाते हैं। इस दौरान वे लाल सुर्ख और चमक वाले कपड़े नहीं पहनते हैं। ज्यादातर काले रंग के ही कपड़े पहनते हैं।

मुहर्रम के पूरे महीने शिया मुस्लिम किसी तरह की कोई खुशी नहीं मनाते हैं और न उनके घरों में 2 महीने 8 दिन तक कोई शादियां होती हैं। इतना ही नहीं वे न तो किसी अन्य की शादी या फिर खुशी के मौके पर शामिल होते हैं।

वहीं, सुन्नी मुस्लिम नमाज और रोजे के साथ इस महीने के मनाते हैं। जबकि कुछ सुन्नी समुदाय के लोग मजलिस और ताजियादारी भी करते हैं। हालांकि सुन्नी समुदाय में देवबंदी फिरके के लोग ताजियादारी के खिलाफ हैं।