गर्मियों के मौसम में प्रदेश के ऊपरी क्षेत्रों विशेषकर हिमालय की रेंज में प्राकृतिक तौर पर उगने वाला एक जंगली पौधा "लुंगडू" इस क्षेत्र में आमजन की रसोई में अपना विशेष स्थान रखता है। इसे लिंगड़ और खसरोड़ के नाम से भी जाना जाता है। हिमाचल प्रदेश में यह सब्ज़ी अप्रैल-मई से अगस्त-सितम्बर तक होती है। प्रकृति के आगोश में उगने वाला लुंगड़ू प्राकृतिक गुणों से भरपूर और बेहद ही स्वादिष्ट और पौष्टिक होता है। लुंगड़ू में विटामिन-ए, विटामिन-बी कॉम्प्लेक्स, आयरन, फैटी एसिड इत्यादि भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं जिसके चलते लुंगड़ू की सब्ज़ी कई औषधीय गुणों से भरपूर है।
लुंगड़ू कुपोषण सहित अन्य कई बीमारियों के लिए बेहतर औषधि
सीएसआईआर, पालमपुर द्वारा किए गए प्रारंभिक शोधों में यह बात सामने आई है कि इसमें कई औषधीय गुण मौज़ूद हैं। लुंगड़ू का इतिहास काफी पुराना है। लुंगड़ू यानि डाप्लेजियम मैक्सिमम एक बड़े पते का फर्न है जो लम्बे समय से हमारे भोजन का हिस्सा रहा है। यह हिमालयी क्षेत्रों में पाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण पौधा होता है। जिसका उपयोग सब्जी और आचार में किया जा सकता है। वैसे कच्चा लुंगड़ू तीखापन या कसैलापन लिए होता है। लेकिन उबालने पर इसका कसैलापन दूर हो जाता है।
हिमालयी क्षेत्रों में पाया जाने वाला लुंगड़ू कुपोषण सहित अन्य कई बीमारियों के लिए बेहतर औषधि है जो सब्जी के रूप में उपयोग की जा सकती है। गर्मियों के मौसम में लोगों द्वारा इस सब्जी को हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा, कुल्लू, चम्बा, मंडी और शिमला के बाजारों में बिकते देखा जा सकता है। लुंगड़ू जहां आयरन और फाइबर का बड़ा स्रोत है वहीं पर इसमें विभिन्न पोषक तत्व भी मौजूद होते हैं। इसके साथ यह कई लोगों की मौसमी आजीविका का भी साधन है।
जिला कांगड़ा के करेरी गांव के गोधम राम, अशोक और बोह घाटी के बतूनी की कांता देवी बताते हैं कि लुंगड़ू धौलाधार की पहाडि़यों के आंचल में कड़ी मेहनत से इकट्ठा किया जाता है। लुंगड़ू कांगड़ा जिला के शाहपुर के करेरी के उपरले क्षेत्र बगधार, दीपधार, धारकंडी क्षेत्र के बोह, सल्ली के इलावा धर्मशाला, पालमपुर, बैजनाथ और बरोट-भंगाल क्षेत्रों के पहाड़ी स्थानों पर पाया जाता है। यह गर्मियों के मौसम में क्षेत्र के लोगों के लिए अतिरिक्त आजीविका के साधन का द्वार भी है। इसमें संलग्न परिवारों के लोग इसको इकट्ठा करने के लिये सुबह ही अपने घरों से निकल जाते हैं।
इस तरह दिया जाता है व्यापारिक रूप
क़रीब 10 से 15 किलोमीटर की चढ़ाई चढ़ने के उपरान्त कड़ी मेहनत कर इसे बोरियों में भरकर अपनी पीठ पर लादकर पहाड़ी क्षेत्रों से नीचे उतरते हैं। औसतन एक व्यक्ति एक दिन में 15 से 20 किलोग्राम लुंगडू इकट्ठा कर के ले आता है। फिर इसको व्यवसायिक रूप देने का काम शुरू होता है। घर पर इसके बंडल बनाये जाते हैं। फिर अगली सुबह गांव के ही कुछ लोग शहरी क्षेत्रों की ओर इसे बेचने के लिए निकल पड़ते हैं। इनको चुनकर लाने वाले और बाजार में बेचने वाले दोनों का ही गुजर-बसर इससे चलता है।
करेरी गांव के गोधम राम और बातूनी गांव की कांता के अनुसार 50 से 70 बंडल प्रतिदिन बिक जाते हैं। आज से लगभग 30-35 साल पहले धारकंडी क्षेत्रों के लोग इसे गांव-गांव में जाकर बेचते थे और इसके बदले में अनाज लेते थे। बदले परिवेश में अब यह बाजारों में उपलब्ध होता है। मौसम के बदलते ही शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के लोग शिद्दत से लुंगडू़ का इन्ज़ार करते हैं। अतः औषधीय गुणों से भरपूर लुंगड़ू की जबरदस्त मांग रहती है। जिसके कारण इसकी अच्छी कीमत मिलती है। लोग इसकी सब्जी और आचार बड़े चाव से खाते हैं ।
कांगड़ा में लोग अपने घरों में इसका आचार भी बनाते हैं और कुछ स्वयं सहायता समूहों द्वारा तैयार किया गया आचार बेचा भी जाता है। लुंगड़ू भले ही मौसमी सब्ज़ी हो लेकिन गर्मी के मौसम में "लुंगड़ू का मदरा" अब विवाह-शादियों और विभिन्न सामाजिक समारोहों में कांगड़ी धाम का जरूरी हिस्सा बनता जा रहा है।