साल 2014 से 25 सितम्बर ‘अंत्योदय दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। यह दिन समाज के ‘अंतिम व्यक्ति’ यानि समाज के सबसे अभावग्रस्त व्यक्ति की परेशानियों को पहचानने और उन्हें दूर करने का संकल्प लेने और इस दिशा में ठोस प्रयास प्रारंभ करने का दिन है। यह सही है कि केन्द्र सरकार ने समाज के अंतिम व्यक्ति की समस्याओं के समाधान हेतु गत छह वर्षों में अनेक प्रयास किये हैं जिनके परिणाम भी उत्साहजनक रहे हैं, लेकिन आज भी हम यह नहीं कह सकते कि समाज के सभी अभावग्रस्त लोगों का उद्धार हो गया है। यदि हम ईमानदारी से समाज के अभावग्ररस्त लोगों को कल्याण करना चाहते हैं तो इस संबंध में सरकार और समाज दोनों को अपनी मानसिकता में थोड़ा बदलाव लाना होगा।सबसे पहले समाज को हर काम के लिए सरकार पर निर्भर रहने की मानसिकता को त्यागना होगा और साथ ही सरकार को समाज को ईमानदारी से साथ लेकर चलना होगा।जहां ऐसे प्रयास हुए हैं वहां चमत्कृत कर देने वाले परिणाम सामने आए हैं।
महाराष्ट्र में गिरीश प्रभुणे ने राज्य की उन घुमंतु जनजातियों के एक लाख से अधिक लोगों के जीवन को स्थायित्व प्रदान कर उन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ दिलवाया है, जिन्हें सरकारी रिकार्ड में पिछले कुछ समय तक ‘जन्मजात अपराधी’ माना जाता था। लातूर (महाराष्ट्र)के संजय कांबले ने अपने शहर के कचरा बीनने वाले 800 से अधिक लोगों को स्वाभिमानपूर्वक जीवन जीने योग्य बनाया है। महाराष्ट्र के ही अहमदनगर जिले में डॉ. गिरीश कुलकर्णी ने वेश्यावृत्ति में फंसी 900 से अधिक महिलाओं को न केवल बदनाम मोहल्ले से निकालकर स्वाभिमानयुक्त जीवन जीने लायक बनाया है, बल्कि उनकी दूसरी पीढ़ी को इस धंधे में फंसने से बचा लिया। राजस्थान के भरतपुर में डॉ. बी.एम. भारद्वाज ने सड़कों के किनारे और गंदगी के ढ़ेर पर जिंदगी गुजारने वाले 11,000 से अधिक निराश्रित मानसिक रोगियों को स्वस्थ करके उनके बिछुडे़ परिवारों से मिलवाया है। अभी भी वे अपने 20 आश्रमों के माध्यम से 2000 ये अधिक ऐसे लोगों की देखभाल कर रहे हैं। दिल्ली की दधिचि देह दान समिति ने 1997 से लेकर अब तक 226 मृत मानव शरीर और एक हजार से अधिक आंखें दिल्ली के विभिन्न मेडिकल कॉलेजों को दान करायी हैं। अभी तक 10,000 से अधिक लोग समिति के माध्यम से मृत्यु के उपरांत देह दान एवं अंगदान का संकल्प ले चुके हैं। बंगलौर की ‘सोकेयर‘ संस्था ने गत 18 सालों में 300 से अधिक कैदियों के बच्चों को अपराधी बनने से बचाया है।
महाराष्ट्र के जनजाति बहुल धुले जिले के एक युवक हर्षल विभांडिक ने गत चार सालों में अपने जिले के सभी 1103 सरकारी स्कूलों का बिना सरकारी सहयोग के डिजिटलीकरण कर दिया। यह प्रयास इसलिए भी प्रशंसनीय है क्योंकि इसमें 70 प्रतिशत सहयोग राशि वहां के ग्रामवासियों, स्कूली विद्यार्थियों और शिक्षकों ने दी है। महाराष्ट्र के ही रायगड जिले के पेन तालुका की 500 गृहणियों ने अपने आसपास की 3000 जनजाति बालिकाओं और करीब एक लाख अन्य लोगों के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन कर दिया। लातूर शहरवासियों ने तो 2017 में ऐसी मिसाल कायम कर दी जो हमारे देश ही नहीं, बल्कि दुनिया के अन्य देशों की भी अनेक समस्याओं का समाधान कर सकती है। अपने सभी राजनीतिक मतभेदों को भुलाकर बिना किसी सरकारी सहयोग के उन्होंने 18 किमी लंबी मांजरा नदी को पुनर्जीवित कर अपने शहर की पेयजल समस्या का स्थायी समाधान कर लिया।
सोलापुर की चन्द्रिका चैहान ने अपने शहर की 15,000 महिलाओं को स्वाभिमानपूर्वक जीवन जीने लायक बनाया, जिनमें 400 प्रथम पीढ़ी की उद्यमी बन गयी हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत जिले में स्थित जौहड़ी गांव में डॉ. राजपाल सिंह ने बिना संसाधनों के 42 अन्तर्राष्ट्रीय, 300 राष्ट्रीय और 3000 से अधिक राज्य स्तर के निशानेबाज तैयार कर पूरी दुनिया में एक मिसाल कायम कर दी। दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में नर्सिंग होम विभाग के प्रमुख रहे डॉ. राजेन्द्र सिंह टोंक पिछले 12 वर्षों में दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में साप्ताहिक स्वास्थ्य शिविरों के माध्यम से छह लाख से अधिक मरीजों का निःशुल्क उपचार कर चुके हैं।दिल्ली के व्यवसायी श्रवण गोयल ने गांवों से शहरों में आकर नौकरी अथवा व्यवसाय करने वाले लोगों को वापस अपने-अपने गांव के विकास में सहभागी बनने के लिए जो प्रयास शुरू किया वह अब एक जनांदोलन बनने की ओर अग्रसर है। राजस्थान में झालावाड़ के मानपुरा गांव में जैविक कृषि एक क्रांति का रूप धारण कर चुकी है। सौराष्ट्र (गुजरात) के मनसुखभाई सुवागिया ने 300 से अधिक गांवों में ग्रामवासियों के सहयोग से 3000 से अधिक चेक डेम का निर्माण किया है। उदयपुर के डॉ. पीसी जैन ने 2000 से अधिक लोगों को वर्षा जल संरक्षण हेतु प्रेरित किया। उत्तराखंड के विजय जड़धारी ने परम्परागत बीजों की 600 से अधिक किस्मों का संरक्षण किया है।
संसाधनों के अभाव में भी ये लोग अपने-अपने स्थान पर डटे हुए हैं। यदि उनके काम से प्रेरित होकर कुछ लोग भी अपने-अपने स्थान पर परिवर्तन के कुछ ठोस प्रयास प्रारंभ करते हैं तो कुछ ही समय में देश एक बडे़ बदलाव को महसूस करने लगेगा। कुछ प्रयासों का तो अद्भुत असर हुआ है। सरकारी एजेंसियों की प्रतीक्षा करने की बजाए महाराष्ट्र के धुले जिले के जनजाति गांव बारीपाड़ा में ग्रामवासियों ने अपने संसाधनों एवं श्रम से परिवर्तन का ऐसा प्रयोग किया है, जिसे देखने के लिए आज दूसरे ग्रामवासी ही नहीं, बल्कि सरकारी अधिकारी और दुनियाभर से विशेषज्ञ भी आते हैं। इन समाज-शिल्पियों ने अपने प्रयासों से सिद्ध कर दिखाया है कि सरकारी संस्थाओं की प्रतीक्षा करने की बजाए यदि समाज स्वयं अपने स्तर पर पहल करता है तो गंदगी, गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण, छुआछूत जैसी समस्याएं लंबे समय तक हमारा मार्ग नहीं रोक सकती।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय, जिनकी जयंती को ‘अत्योदय दिवस’ के रूप में मनाया जाता है, भी समाज परिवर्तन में समाज की सक्रिय भूमिका चाहते थे। उनके अनन्य सहयोगी रहे नानाजी देशमुख कहते थे, ‘‘बातें करने से समाज की समस्याओं का और पीड़ितों की पीड़ा दूर नहीं हो सकती। यह तो करने से ही होगा। एकदम परिवर्तन नहीं होगा, लेकिन यदि किसी ने ठान लिया तो कोई कठिन नहीं है। …सकारात्मक मार्ग ढूंढ़ना दीनदयाल जी का स्वभाव था। हर काम सरकार से संभव नहीं है। लेकिन जो लोग सरकार में हैं क्या उनके मन में रचनात्मक भाव है। भारत में सरकार भी चलाना है तो उसे चलाने का भाव सदैव रचनात्मक होना चाहिए। रचनात्मक सरकार होगी तो समाज भी ऐसी सरकार के अनेक रचनात्मक कार्यों में स्वतः रुचि लेगा। रचनात्मक कार्य और प्रत्येक नागरिक की सृजनशीलता का उपयोग किये बगैर राष्ट्रदेवता को हम प्रसन्न नहीं कर सकते’’।
(लेखक डॉ. प्रमोद कुमार हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला, के दीनदयाल उपाध्याय अध्ययन केन्द्र में सहायक आचार्य हैं)