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देव-परम्पराएं संजीव हो उठती हैं कुल्लू के अंतरराष्ट्रीय दशहरा महोत्सव पर

विवेक अविनाशी |

कुल्लू के अंतर्राष्ट्रीय दशहरा महोत्सव पर इस जनपद की देव-परम्पराएं सजीव हो उठती हैं। घाटी के विभिन्न हिस्सों से पधारे देवी-देवता कुल्लू पधार कर इस समारोह की शोभा बढ़ाते हैं। देवताओं के साथ उनके कारदार देवलु और बजंतरी देव-रथ के साथ मेले में एक सप्ताह तक भाग लेते हैं। विजय दशमी के दिन प्रारम्भ होने वाला यह दशहरा महोत्सव इस वर्ष 30 सितम्बर को प्रारम्भ होगा और 6 अक्तूबर को समाप्त होगा।

इस बार इस महोत्सव में 305 देवी-देवताओं को प्रशासन की ओर से आमंत्रित किया गया है । इस बार दशहरा पर 75 वर्ष बाद कुल्लू की अधिष्ठात्री देवी जगतसुख की देवी सांध्य गायत्री भी कुल्लू पधार रही हैं। जगत सुख का सांध्य गायत्री देवी का मंदिर उतरी भारत का प्राचीन पांडवकालीन मंदिर है जहां देवी अपने तीनों रूपों में विराजमान है-पहला रूप ब्रह्न गायत्री ,दूसरा विष्णु गायत्री और तीसरा शिव गायत्री।

वास्तव में इस वर्ष सावन मेले के दौरान माता सांध्य गायत्री ने अपने कारकुनों और देवलुओं को आदेश दे कर अठारह करडू की सोह में कुल्लू के आराध्य देव से प्राकृतिक आपदाओं पर मन्त्रणा के लिए और उनके निवारण हेतु कुल्लू जाने का आदेश दिया था। दशहरा महोत्सव का इतिहास लगभग 400 वर्ष पुराना है।

किंवदन्ती है झिड़ी के पयोहारी बाबा किशनदास ने कुल्लू के राजा जगतसिंह को कुल्लू में भगवान रघुनाथ जी की प्रतिमा स्थापित करने की सलाह दी थी। राजा जगतसिंह ने 1637 से 1662 तक कुल्लू पर शासन किया था उस समय कुल्लू की राजधानी नग्गर हुआ करती थी। राजा वास्तव में किसी असाध्य रोग से ग्रसित था और इस प्रतिमा की स्थापना के बाद राजा स्वस्थ होने लगा। राजा ने अपना समस्त राजपाट भगवान रघुनाथ जी को अर्पित कर दिया और उनकी सेवा में लीन हो गए। भगवान रघुनाथ जी,सीता माता और हनुमान जी की प्रतिमा अयोध्या के त्रेतानाथ मंदिर से बाबा किशन दास के शिष्य दामोदर दास लाये थे।

दामोदर दास 1651 में यह प्रतिमा ले कर गांव मकड़ाह पहुंचे थे। 1653 में रघुनाथ जी की प्रतिमा को मणिकर्ण मंदिर में रखा गया था। चार वर्ष के बाद यह प्रतिमा कुल्लू के रघुनाथ मंदिर में स्थापित कर दी गयी । राजा के इस असाध्य रोग के साथ एक और कहानी जुड़ी हुई है। कहते हैं राजा जगत सिंह को किसी ने बताया कि मणिकर्ण के एक गांव में किसी ब्राह्मण के पास एक बेशकीमती रत्न था जिसे पाने के लिए राजा जगत सिंह लालायित हो उठे। राजा के सैनिकों ने सैनिकों ने ब्राह्मण को यातनाएं देनी शुरू कर दीं जिसके चलते ब्राह्मण ने आत्महत्या कर ली। ब्राह्मण-हत्या के दोष से राजा असाध्य रोग से ग्रसित हो गया था।

दशहरा उत्सव का शुभारंभ भगवान रघुनाथ जी की जलेब (रथ-यात्रा)से होता है ।इस जलेब में भगवान रघुनाथ जी के छड़ीबरदार पालकी में भगवान नृसिंह की कटार ले कर चलते हैं। वर्तमान में राजा महेश्वरसिंह छड़ीबरदार हैँ । कई देवी-देवताओं के रथ भी इस जलेब में शामिल होते हैं। पहले दिन दशहरे की देवी मनाली की हिडिम्बा देवी कुल्लू आती है और राजसी ठाठ-बाट के साथ राजमहल में देवी हिडिम्बा का प्रवेश होता है।

रघुनाथ मंदिर के सामने पहाड़ी से माता भेखली का आदेश होते ही रघुनाथ जी की रथ-यात्रा प्रारम्भ हो जाती है। रथ को रस्सी की सहायता से सभी धर्मों के लोग खींचते हैं और रथ को ढालपुर मेला स्थल पर पहुंचाया जाता है। दशहरा महोत्सव के सातवें दिन रथ को ब्यास नदी के किनारे ले जाया जाता है और कंटीले पेड़ को लंका दहन के रूप में जलाया जाता है। दशहरे के इस सात दिवसीय महोत्सव की प्रत्येक सांझ पर उपस्थित जनसमूह के मनोरंजन के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन प्रशासन की ओर से किया जाता है।

(ऊपरोक्त विचार वरिष्ठ स्तंभकार विवेक अविनाशी के हैं। विवेक अविनाशी काफी लंबे अर्से से हिमाचल की राजनीति पर टिप्पणी लिखते रहे हैं और देश के नामचीन पत्र-पत्रिकाओं में इनके विचार पब्लिश होते रहे हैं।)