Follow Us:

भारत की गरीबी पर ‘राग अंग्रेज’ कब तक?

|

ऐलेक्स टैबरॉक।। भारत के बड़े शहरों दिल्ली, कोलकाता या चेन्नई के किसी भी संभ्रांत डिनर पार्टी में अगर बातचीत राजनीति पर हो रही है तो वह अंग्रेजों की बुराई किए बिना पूरी नहीं हो सकती। भारत में डिबेट करने वाले के लिए ब्रिटिशर्स एक आसान टारगेट रहे हैं, भले ही तर्क किसी भी विषय पर हो निशाने पर तो ब्रिटिशर्स ही रहेंगे।

उदाहरण के तौर पर पॉर्न के जरिए भारतीय परिवारों के मूल्य खतम हो रहे हैं, तो अंग्रेज दोषी हैं! यदि होमोसेक्सुआलिटी के खिलाफ कानून कड़े हैं, तो भी अंग्रेज दोषी हैं! मतलब हिंदुस्तान में हर सामाजिक, आर्थिक या सैद्धांतिक बुराईयों और गलतियों की बात हो तो अंग्रेज दोषी हैं! लेकिन, आपको नहीं लगता कि अंग्रेजों का राग गा-गाकर भारतीय जनता अपने नेताओं की जवाबदेही को जीरो बना देती है? उन्हें उनके कर्तव्यों से मुक्त कर देती है?

भारत के संसद सदस्य, संयुक्त राष्ट्र संघ के पूर्व अंडर-सेक्रेटरी जनरल तथा दुनिया के जाने-माने लेखक शशि थरूर भी अंग्रेजी हुकूमत को लेकर खासे आलोचनात्मक हैं। उन्होंने तो भारत में ब्रिटिश हुकूमत को एक अंधकारमय युग की उपमा दे दी है। 2016 में शशि थरूर ने An Era of Darkness: The British Empire in India नाम की किताब लिखी है, जो इस साल Inglorious Empire के नाम से पब्लिश हुई है। इसमें शशि थरूर ने जमकर अंग्रेजी हुकूमत की आलोचना की है।

शशि थरूर के इसमें तीन प्रमुख दावे हैं, जिनके बुनियाद पर वह ब्रिटिश हुकूमत को भारत का गुनहगार बता रहे हैं,

1. भारत में 1757 में ईस्ट इंडिया कंपनी के बंगाल में शासन से लेकर ब्रिटिश हुकूमत के 1947 तक का काल  क्रूरता, लूट और नस्लभेद का रहा है

2. अगर भारत में ब्रिटिश हुकूमत नहीं होती तो आज यह काफी विकसित और धनवान होता

3. भारत की आकूत संपदा की वजह से ही ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति को बल मिला

शशि थरूर का पहला तर्क सही है, जबकि दूसरा अनिश्चित और तीसरा तो बिल्कुल ही बकवास है।

थरूर साहब की किताब में पहला दावा कि अंग्रेजी हुकूमत ने भारत में क्रूरता, लूटपाट और नस्लभेद की पराकाष्ठा कायम की, यह बिल्कुल सत्य है। लेकिन, इसके सिवा और अपेक्षा भी क्या की जा सकती थी। क्योंकि, पावर भ्रष्टचार को तो जन्म देता ही है और यदि पावर संपूर्ण है तो भयंकर भ्रष्टाचार की गुंजाईश भी बढ़ जाती है। चोरी, भूखमरी, नरसंहार, नस्लभेद,हजारों भारतीय सैनिकों का दो विश्व-युद्ध लड़ना इन सारी बातों को अंग्रेजी राज्य के संदर्भ में शशि थरूर ने पुख़्ता तरीके से अपनी किताब में पेश की है। शशि थरूर इन कृत्यों को देखते हुए ईस्ट-इंडिया कंपनी और ब्रिटेन के खिलाफ केस ला रहे हैं, जिस पर पहले एडमंड बर्क (1774-1785), दादा भाई नौरोजी (1901) और अमेरिकी इतिहासकार विल डूरंट(1930) में काम कर चुके हैं। कुल मिलाकर देखा जाए तो यहां तक थरूर ने बेहतर दृष्टिकोण पेश किया है।

लेकिन, ब्रिटेन को दोषी ठहराने के उत्सकता में उन्होंने ऐसे-ऐसे तर्क पेश किए हैं जिनका कोई भी आधार नहीं है। वे बेहद ही कमजोर और तथ्यहीन हैं।

भूमि- सुधार और अर्थव्यवस्था

शशि थरूर के मुताबिक अंग्रेजों ने भारतीय किसानों को भूमिहीन, आत्मनिर्भर से नौकर और गुलाम बना दिया। अंग्रेजों ने भारतीय समाजिक रिश्तों के ताने-बाने को नष्ट किया जिससे कृषि क्षेत्र में विकास ही ठप पड़ गया। अगर, गौर फरमाया जाए तो थरूर साहब का किसानों को गरीब, भूमिहीन और नौकर बनाने का तर्क बिल्कुल ही बेहूदा जान पड़ता है। भूमिहीन किसान पहले भी भारत में थे जब अंग्रेज यहां नहीं आए थे।

अपने तर्कों के लिए शशि थरूर दो अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी और लक्षमी अय्यर का भी हवाला देते हैं, जिनके मुताबिक, " भारत में ब्रिटिश हुकूमत ने आर्थिक उन्नति में काफी असामंजस्य रखा। उन इलाकों को जमीदारों को हवाले कर दिया गया जहां पर कृषि उत्पादन बेहद ही कम था। जबकि, जहां पर जमीदारों की नहीं चलती थी वहां पर कृषि उत्पादन ज्यादा था। ब्रिटिश शासन में कोई ऐसा काम नहीं था जिसका कोई भुक्तभोगी ना रहा हो। अंग्रेजों ने जो किया उसकी वजह से भारत युगों तक पीछे चला गया।"

थरूर साहब सही हैं। अंग्रेजों ने भारत के उत्तर-पूर्वी हिस्से की जमीनों का मालिकाना हक जमीदारों और साहूकारों को दे दिया और बदले में उनसे एक तय मानक पर टैक्स वसूली भी की। जबकि, इन इलाकों में कृषि उत्पादन बेहद ही कम होता था और आज भी होता है। लेकिन, ख्याल करने वाली बात यह है कि थरूर साहब किस वैकल्पिक सिस्टम से जमींदारी सिस्टम की तुलना कर रहे हैं? सभी को पता है कि हिंदुस्तान में जमींदारी सिस्टम के खिलाफ वैकल्पिक सिस्टम अंग्रेजों ने ही दिया था।

दक्षिण और पश्चिमी भारत में अंग्रेजों ने बिचौलियों के रोल को खत्म कर दिया और किसानों को जमीन का अधिकार सौंप दिया। अंग्रेज सीधे किसानों से ही टैक्स वसूली करते थे। इस प्रथा को रैयतवाड़ सिस्टम के नाम से जाना जाता है। जमींदारी और रैयतवाड़ प्रथा अंग्रेजों द्वारा ही लागू किया गया।

ब्रिटिश हुकूमत में उन जगहों पर साहूकारों को ही जिम्मेदारी सौंपी जहां वे पहले से ही मजबूत थे। क्योंकि, उन इलाकों के मद्देनजर उस दौरान ब्रिटिशर्स ज्यादा ताकतवर नहीं थे और ऐसे जमींदारों को हटाना उनके लिए घातक हो सकता था। जैसे ही वे ताकत हासिल किए उन्होंने सबसे पहले जमींदारी उन्मूलन का रास्ता इख्तियार किया और डायरेक्ट टैक्स की व्यवस्था शुरू कर दी।

मैं यह नहीं कहता कि ब्रिटिश हुकूमत का जश्न मनाया जाना चाहिए। बिल्कुल भी नहीं कहता। ब्रिटिश काल में कई अच्छे काम भी हुए हैं। लेकिन, साथ ही शशि थरूर के पहले दावे से भी इनकार नहीं किया जा सकता। बेशक ब्रिटिश राज क्रूर, खूंखार लूट और नस्लभेदी रहा है। मगर उनके दूसरे दावे में दम नहीं लगता, जिसमें उनका तर्क है कि अगर ब्रिटिश शासन नहीं रहा होता तो भारत भी यूरोपीय देशों की तरह अमीर। दरअसल, शशि थरूर अपने इस दावे की पुष्टि के लिए कुछ तर्कों को पेश करते हैं, इसके लिए वह ब्रिटिश इतिहासकार एंगस मैडिसन का हवाला देते हैं, मसलन

18वीं सदी की शुरुआत में भारत का दुनिया की अर्थव्यवस्था में 23 फीसदी की हिस्सेदारी थी, जबकि इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था पूरे यूरोप की भी नहीं होती थी। मगर, जब अंग्रेज भारत को छोड़कर गए तो इसकी विश्व की अर्थव्यवस्था में महज 3 फीसदी ही हिस्सेदारी बची थी। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि भारत को दोहन ब्रिटेन को फायदा पहुंचाने के लिए हुआ। ब्रिटेन की प्रगति में 200 सालों तक भारत से लूटे गए संसधानों का योगदान है।( पेज 2-3) 

18वीं सदी की शुरुआत में भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूती के पीछे एक आसान सा कारण है। दरअसल, जब पूरा विश्व ग़रीब था तब भारत के पास जनसंख्या का एक बड़ा भाग था। लेकिन, उस दौरान इसकी अर्थव्यवस्था के धराशाई होने में यूरोपीय देशों के भीतर औद्योगिक क्रांति का आना बड़ा कारण रहा। यूरोप और उत्तरी अमेरिका में औद्योगिक क्रांति की बदौलत पर-कैपिटा इनकम ऐतिहासिक बढ़ोतरी हासिल करता चला गया। अब भारत के संसाधनों के जरिए ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति लाने का दावा बिल्कुल ही बेबुनियाद साबित हो जाता है। क्योंकि, तब ब्रिटेन ने भारत से भाप के इंजन आयात नहीं किए थे।

इन सबका मजमून यही है कि भारत गरीब नहीं हो रहा था, बल्कि दुनिया के बाकी देश अमीर हो रहे थे। गौरतलब है कि सन 1600 ईसवी में जब मुगल साम्राज्य अपने ऊफान पर था तब ब्रिटेन की GDP पर-कैपिटा इनकम भारत से 61 फीसदी ज्यादा थी। 1750 में यानी प्लासी के युद्ध से पहले भी ब्रिटेन की जीडीपी पर-कैपिटा इनकम भारत से दोगुनी थी।

मेरे ख्याल से थरूर साहब मुगल बादशाहों और रजवाड़ों के आभूषणों की चकाचौंध में इतिहास की सही स्थिति को नहीं समझ पाए हैं। वह बड़े ही अभिमान के साथ लिखते हैं कि जब मुगल बादशाह जहांगीर के दरबार में अंग्रेज दूत पहुंचा तब वह दुनिया के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य के तख्त के नीचे खड़ा था।

सही बात है। लेकिन, जिस सिंहासन के नीचे वह खड़ा था वह करोड़ों ग़रीबों की मेहनत-मजदूरी और उन पर चले चाबुका नतीजा था। तत्कालीन शासनकाल में मुठ्ठी भर धनाड्य लोग थे और बेतहाशा गरीब आवाम थी। इस बात की तस्दीक जिक्र डच व्यापारी फ्रांसिस्को (1626) भी करता है। भारतीय राजाओं के पास आकूत दौलत होती थी जबकि आवाम के पास फूटी कौड़ी भी नसीब होना बड़ी बात थी। 

अंग्रेजी हुकूमत से पहले मुगल और मराठा शासक किसानों से कर के रूप में अनाज का एक-तिहाई से लेकर आधा भाग भी ले लेते थे। सबसे बड़ी बात कि इन टैक्स का इस्तेमाल कल्याणकारी योजनाओं तथा कृषि विकास के लिए नहीं बल्कि सैन्य क्षमता को दुरूस्त करने में किया जाता था। जनता से जुटाए गए पैसे का ज्यादा इस्तेमाल राजभवन के सुंदरीकरण और मिलिट्री दस्ते में खर्च होता था।

मुगलों के शासनकाल में कुछ ही परिवार खेतिहर जमीन पर अधिकार रखते थे। गरीब जनता से मिले पैसे को शाही ऐशो-आराम में फूंक दिया जाता था। इसके साथ ही नौकरशाही और सैन्य क्षमता को बढ़ाने में बड़ा हिस्सा निवेश किया जाता था। ऐसा विरले ही हुआ कि सड़क निर्माण या कृषि उत्पादकता को बढ़ाने में टैक्स का इस्तेमाल किया गया हो।

एक बात से साफ अंदाजा लगाया जा सकता है कि खाद्यान में कम उत्पादन यानी किसान सिर्फ जीने के लिए खेती कर रहा है। यही तकदीर हिंदुस्तान के किसानों की रही है। कृषि में नई तकनीक और नए सुधार के बिना ज्यादा उत्पादन की अपेक्षा की भी नहीं जा सकती। मुगल साम्राज्य के खत्म होने के बाद तो किसानों की स्थिति और बदतर हुई। क्योंकि, छोटे-छोटे शासक अपनी सैन्य क्षमता को बढ़ाने के लिए किसानों पर ही ज्यादा से ज्यादा कर थोपते गए और उसके बदले किलेबंदी और सैनिकों की भर्ती करते चले गए। जबकि, ऐतिहासिक रूप से ज्यादा कर चुकाने के बावजूद भी किसानों के खेत-खलिहान सुरक्षित नहीं थे।

भारत में अंग्रेज एक बेहद ही घटिया शासक रहे। लेकिन, भारत के इतिहास में इनसे भी ज्यादा घटिया शासकों की लंबी फेहरिस्त रही है। मैडिशन (2007) के मुताबिक भारतीय अर्थव्यवस्था में अंग्रेजों ने तो मुगलों से काफी कम धन अर्जित किया था। अंतर बस यही है कि मुगलों ने इसका बड़ा हिस्सा भारत में ही वैभवशाली ईमारतों के निर्माण में खर्च किया जबकि अंग्रेजों ने ब्रिटेन में किया। मगर, इससे भारतीय श्रमिक वर्ग को कोई खास अंतर नहीं पड़ता था। क्योंकि, उसके लिए दोनों ही एक समान ही थे।

अब कोहिनूर भारत में वैभवशाली साम्राज्य का एक बड़ा सबूत है। इसमें कोई दो राय नहीं कि इसे अंग्रेजों ने चुराया ( कोहिनूर को अंग्रेजों ने एक सिख शासक से हथियाया था, जिसने इसे एक अफगान शासक से छीना था। अफगान शासक ने कोहिनूर को मुगल बादशाह से छीना था और मुगलों ने इसे दक्षिण भारत के एक राजा से छीना था)। लेकिन, कोहिनूर के भारत में होने से कितने भारतीयों के जीवन स्तर में सुधार हो जाता? हिंदुस्तान में राजा की विलासिता और प्रजा की गरीबी का ही एक बड़ा कारण था कि अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आम जनसमूह खड़ा नहीं हुआ। दरअसल, उसके लिए पुराने बॉस की जगह नया बॉस आ गया था।

हिंदू- मुस्लिम का बंटवारा

शशि थरूर अंग्रेजों को ना सिर्फ भारत की ग़रीबी और जिहालत के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं बल्कि धर्म और जाति के बंटवारे का भी ठीकरा फोड़ देते हैं। इसके लिए वह धार्मिक आधार पर जनगणना को सबसे बड़ा सांप्रदायिक एजेंडा करार देते हैं। उनके मुताबिक धार्मिक आधार पर की गई जनगणना आम लोगों के आपसी विचारों के ठीक विपरीत थी। उनका तो यह भी कहना है कि हिंदू-मुसलमान के बीच जितना विभाजन अंग्रेजों के शासनकाल में हुआ उतना पहले कभी नहीं हुआ था।

मेरे ख्याल से यह तर्क पेश करते वक्त भी थरूर साहब सही स्थिति को भांप नहीं पा रहे हैं। हिंदू और मुस्लिम के बीच की खाई ब्रिटिश हुकूमत के दौर में नहीं बल्कि उसके काफी पहले बन चुकी थी। बादशाह औरंगजेब ने जब अपने भाई दारा शिकोह की हत्या (1659) कराई तो उसमें दारा का हिंदू धर्म के प्रति लगाव एक अहम कारण था। असल बंटवारे की बुनियाद तो औरंगजेब ने ही रख दी थी। औरंगजेब ने उस जजिया टैक्स को भी दोबारा लागू किया जिसे उसके परदादा अकबर ने हटा दिया था। जजिया टैक्स गैर-मुस्लिम लोगों पर लगाया गया एक तरह का अधिभार होता था। इसके अलावा सुन्नी इस्लाम में वहाबी संप्रदाय के प्रभाव का बढ़ना भी बंटवारे का एक बड़ा कारण रहा है। वहाबियों ने भारत में सूफी मापदंड पर आधारित हिंदू-मुस्लिम रिश्ते को बुरी तरह प्रभावित करने का काम किया है। ऐसे में सिर्फ अंग्रेजों पर इसका ठिकरा फोड़ना लाजमी नहीं है।

जातिगत बंटवारा

जब शशि थरूर भारत में जातिगत बंटवारे को लेकर भी ब्रिटिशर्स पर आरोप मढ़ते हैं तो यह बिल्कुल ही हास्यासपद लगता है। भारत में जातिभेद अंग्रेजों के जमाने से 2000 साल पहले से ही चला आ रहा था। 2000 हजार साल पहले से ही शूद्र और दलितों को गुलाम की जिदंगी बसर करने के लिए मजबूर किया गया था। मगर, शशि थरूर इसके लिए भी ब्रिटिश को जिम्मेदार ठहराते हैं और लिखते हैं, " ब्रिटिश शासन के दौर में शूद्रों की स्थिति बेहद खराब हो गई थी। ब्रिटिश शासनकाल से पहले शूद्र अपना गांव छोड़कर किसी दूसरे राज्य में अपनी जाति बदलकर रह सकता था।"

अब थरूर साहब की बात में कितनी सच्चाई है यह एक भारतवासी आराम से आंकलन कर सकता है। एक शख्स जिसे शिक्षा से वंचित रखा गया हो, जिसकी ना कोई स्वतंत्रता है और ना ही सम्मान। समाज में उसे सिवाय तिरस्कार के कुछ नहीं मिला हो, अगर वह अपनी जाति छोड़ देता है तो वह ऐसे ही जाति-निकाला हो गया। गौर करिए कि अगर शूद्र या दलित अपनी पहचान बदल लेता है और आगे चलकर उसकी पहचान उजागर होती है तो फिर क्या होता होगा? इसका स्पष्ट उदाहरण रामायण के शंबूक से लिया जा सकता है। शंबूक को राम ने इसलिए मार दिया था क्योंकि वह शूद्र था और वह अपनी जाति बदलकर उनके राज्य में रह रहा था।

हिंदू धर्मशास्त्र के मुताबिक दलित और शूद्रों के अपराध की कुछ सजाएं तय थीं, मसलन

अगर शूद्र अपने से किसी ऊंची जाति के शख्स को गाली देता है या हिंसा करता है तो उसका वह अंग काट दिया जाएगा जिसके जरिए उसने अपराध को अंजाम दिया है। अगर कोई शूद्र किसी आर्य स्त्री के साथ संभोग करता है तो उसका लिंग काट दिया जाएगा और उसकी सारी संपत्ति जब्त कर ली जाएगी। अगर शूद्र भूल से भी वैदिक रिचाओं का सुन लेता है तो उसके कान में पिघला हुआ शीशा डाल दिया जाएगा।

दलित और शूद्रों पर एक काल से बड़ा अत्याचार होता रहा है। यही वजह है कि स्वतंत्रता आंदोलन को दिलत काफी समय तक संदिग्ध समझते रहे। क्योंकि, वह जानते थे कि देश की आजादी का मतलब उनकी निजी आजादी से नहीं है।  1936 में दलित नेता डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने स्वतंत्रता आंदोलन के तमाम हिंदू नेताओं से सवाल किया था, "क्या आप सभी राजनीतिक शक्ति हासिल करने के योग्य हैं जबकि आपके ही समाज का एक बड़ा तबका अछूत है और उसे स्कूल जाने की आजादी नहीं है? क्या आप राजनीतिक सत्ता पर बैठने का हक रखते हैं, जबकि आप अपने कुएं और तालाब से एक बड़ी आबादी को पानी तक नहीं पीने देते? क्या आप राजनीतिक हैसियत रखने के योग्य हैं जबकि आप अपने रास्ते में किसी शूद्र को देखना पसंद नहीं करते और उन्हें उनके पसंद का खाना खाने की इजाजत भी नहीं देते। 

कुल मिलकार दलित जानते थे कि उनपर ब्रिटिश शासन से ज्यादा क्रूरता भारतीय शासन ने किया है। इतिहास का हर वर्तमान में होने वाली घटनाओं का संबंध रहता है। लेकिन, भारत के हर परेशानी के लिए सिर्फ अंग्रेजों को गुनहगार ठहराना यह ज्यादती है। ऐसे में शशि थरूर भारत की ताकत और कमजोरी पकड़ने में नाकाम साबित होते हैं। चलिए एक क्षण के लिए मान लेते हैं कि भारत की सारी परेशानियों के लिए अंग्रेज ही दोषी थे तो आपने 70 सालों में क्या किया। किसी भी बुरे वक्त को पाटने के लिए 70 साल काफी होते हैं। इतिहास की काली छाया को हटाने के लिए भारत को अभी और कितना वक्त लगेगा? भारत को यह सझना होगा कि इसके पिछड़ेपन का बड़ा कारण कई तरह के आर्थिक प्रतिबंध, व्यापार पर लाल-फिताशाही का आतंक, जातिगत तनाव जैसे मूल मुद्दे रहे हैं। ऐसे में भारत को अपने इतिहास का सही विश्लेषण करके उसके सुधार की प्रक्रिया में चलना होगा।

(यह आर्टिल thinkpragati.com से लिया गया है। इसके लेखक ऐलेक्स टैबरॉक दुनिया के मशहूर अर्थशास्त्रियों में शुमार हैं। ऐलेक्स काफी वक्त से भारत की परिस्थितियों और आर्थिक व्यवस्था पर लिखते रहे हैं। हाल के दिनों में इनके लेख भारत में काफी लोकप्रिय हो रहे हैें।)