अमृत कुमार तिवारी।। आज के दौर में देश के पहले प्रधानमंत्री और स्वतंत्रता सेनानी पंडित जवाहर लाल नेहरू की शख्सियत पर कीचड़ उछालने का गंदा खेल जो चला है, वह हिंदुस्तान की आने वाली नस्लों के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। देश का हर नागरिक जब वाट्सएप या फेसबुक खोलता है, उसे अपने प्रियजनों से ज्यादा सोशल मीडिया के गुंडों से राफ्ता होता है। इनमें गर्व से कहो हिंदू हैं, गर्व से कहो मुसलमान हैं, सेक्युलर भड़#% दूर रहें…जैसे आपत्तिजनक शब्द जरूर मिलते हैं। इसी के साथ- साथ हर दूसरे-तीसरे दिन पंडित नेहरू तो निशाने पर आ ही जाते हैं।
वाट्सएप, फेसबुक और ट्विटर पर ये तत्व (जिन्हें कभी असमाजिक तत्व कहा जाता था) लगातार गलीच शब्दों को इस्तेमाल करते हैं। अफसोस, इससे वे ना सिर्फ नेहरू की शख्सियत को मिटाने की कोशिश कर रहे होते हैं, बल्कि एक उद्यमशील, सहनशील और विकास-परक भारत को भी तबाह करने की साज़िश अनजाने में रच रहे होते हैं। सोशल मीडिया के गुंडे यह भी नहीं जानते कि जो लफ्ज वे बेधड़क इस्तेमाल कर पा रहे हैं, उस हद तक कि आजादी भी नेहरू की वजह से मुमकिन है।
देश के प्रधान सेवक (पीएम नरेंद्र मोदी) अक्सर अपने भाषणों में 60 साल के भ्रष्टाचार का हिसाब मांगते हैं। लेकिन, कोई पूछे कि इन्हीं विगत 60 सालों में ख़ासकर नेहरू के कार्यकाल में भारत की उपलब्धियां क्या रही हैं। जब देश पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के सेटलमेंट, आकाल, प्लेग, बेरोजगारी और कोल्ड वॉर के कुचक्र में फंसा था। उस दौर में भी नेहरू का भारत स्पेस सेंटर, बांध- निर्माण, यूनिवर्सिटी, नौकरियां और कारखानों के निर्माण में अपनी ऊर्जा खपा रहा था।
उस दौर में जब देश हिंदू-मुसलमान के दंगों से घायल था। एक टुकड़ा पाकिस्तान बन चुका था। दोनों ही संप्रदाय एक दूसरे को देखना तक नहीं चाह रहे थे। उस नफरत भरे दौर में भी नेहरू का कुनबा एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक संविधान की रचना में व्यस्त था। लोगों के राजनीतिक एवं सामाजिक अधिकार का खाका खींच रहा था। असल मायने में कहें तो ''राजधर्म" का पालन कर रहा था।
आज हिंदू संस्कृति की दुहाई देने वाले कट्टर हिंदूवादी ताक़तों को नेहरू से ही कुछ सीखने की जरूरत है। क्योंकि, बेस्ट उदाहरण का तो उनके यहां घोर आकाल है। दरअसल, नेहरू ने भारत की श्रेष्ठ फिलॉसफी को जमीन पर अवतरित करने का कालजयी प्रयास किया। उन्होंने ''धर्म'' यानी ड्यूटी को सर्वोपरि माना। ख़्याल रहे कि भारत वर्ष के इतिहास में ''धर्म'' का मतलब कतई तौर पर ''रिलीजन'' से जुड़ा नहीं था। यहां धर्म का मतलब जस्टिस और ड्यूटी दोनों से था। मसलन, पिता-पुत्र का धर्म, राजा का प्रजा के प्रति धर्म, पति का पत्नी के प्रति धर्म। इनका आशय ड्यूटी से था। उसी तरह धर्म का आशय न्याय पर भी टिकता था। यानी राजधर्म के तहत सही ग़लत का निर्णय करना।
आजादी के बाद नेहरू ने जो भारत की नींव रखी वह इसी धर्म के बुनियाद पर रखी। ना कि किसी प्रवर्तक के धर्म या फिर संप्रदाय विशेष की सोच पर देश का भविष्य तय किया। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने राजधर्म को सर्वोपरि रखा और तत्कालीन नफ़रत के दौर में भी हिंदुस्तान के एक-एक नागरिक का अधिकार सुरक्षित रखने का रास्ता तैयार किया। उन्होंने भविष्य को देखते हुए ही भारत के राजनीतिक एवं सामाजिक मूल्यों का निर्धारण किया। नो डाउट, इसमें उस वक़्त के तत्कालीन नेताओं का जबरदस्त योगदान था। लेकिन, उनको विकास-परक सोच के आधार पर फैसले लेने का जोखिम नेहरू के नेतृत्व ने ही दिया। पंडित नेहरू की दूरदृष्टि ही कहेंगे कि उन्होंने अपने पीछे भी योग्य और कुशल नेतृत्व को खड़ा रखा। शायद यही वजह है कि उनके देहांत के बाद भी हिंदुस्तान के पास एक बड़ी और योग्य लीडरशिप खड़ी थी।
जब भारत का निर्माण हो रहा था, तब नेहरू के पास बहुत संभावना थी कि वह इसकी बुनियाद अथॉरिटेरियन सिस्टम का रख सकते थे। अपने नीचे किसी अन्य नेतृत्व को पनपने ही नहीं देते। लेकिन, उन्होंने ''आलोचना'' को भारत के सिस्टम में जगह दी। आज उसी नेहरू के विजन का नतीजा है कि एक खूंखार प्रौपगैंडा-परस्त समाज उनकी गलीच आलोचना कर पाता है।
1963 में पहली बार नेहरू सरकार के खिलाफ विपक्ष ने अविश्वास प्रस्ताव लाया। अपनी पार्टी के सदस्यों के घोर विरोध के बावजूद भी पंडित नेहरू ने विपक्ष की ओर से लाए अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा कराया और उसमें भाग लिया। संसदीय इतिहास में सदन के भीतर विपक्षी सदस्यों की बातों को सुनने का सबसे ज्यादा रिकॉर्ड भी नेहरू के ही पास है।
छोटी सी बात है, जिसके बारे में सभी चर्चा करते हैं। मसलन, बंटवारे के बाद मो. अली जिन्ना के हिस्से में पाकिस्तान था और नेहरू के हिस्से में हिंदुस्तान। अब गौर फरमाइए, आज जिन्ना का पाकिस्तान कहां है और नेहरू का हिंदुस्तान कहां। पाकिस्तान ने जहां एक भाषा और कट्टरपंथ को हवा दी, वहीं हिंदुस्तान में नेहरू के शासन में हर भाषा और बोलियों को सम्मान मिला। हर नागरिक को उसके धर्म, जाति और गोत्र से अलग रख भारतीय नगारिक के सामान दृष्टि से देखा गया। भारत ने मुफलिसी और आक्रमण के दौर में भी अपनी संप्रभुता बनाए रखा। जबकि, पाकिस्तान की हालत सर्वविदित रही है।
हर इंसान में कुछ मेरिट्स और डिमेरिट्स होते हैं। नेहरू से भी कुछ बड़ी भूल हुई हैं। लेकिन, देखना यह चाहिए कि समय-काल-परिस्थिति में उस शख्स ने कितनी मजबूती से भारत का निर्माण किया।
जब व्यक्ति अपनी औलाद को कोई बात सीखाता है, तो जाहिर है उस वक्त वह बहुत ही दार्शनिक होता है और ईमानदारी की गुंजाइश भी बहुत अधिक होती है। अपनी बेटी इंदिरा ( जो आगे चलकर भारत की प्रधानमंत्री बनीं) को लिखे ख़त में उन्होंने जिस विस्तार से भू-खंड, मानव सभ्यता के साथ-साथ भारत के ऐतिहासिक विरासत का बखान किया है। वह दिखाता है कि वह अपनी आने वाली पीढ़ी को क्या देना चाह रहे हैं।
नेहरू चाहते तो अपनी पुत्री इंदिरा प्रियदर्शनी को दूसरे तरह के खुराफाती ज्ञान भी दे सकते थे। किसी सभ्यता या नस्ल विशेष के प्रति नफरत के बीज भी बो सकते थे। किसी एक सिस्टम को महान भी बता सकते थे। लेकिन, उन्होंने तर्क की कसौटी पर कसे रिसर्च बेस्ड जानकारी अपनी बेटी तक पहुंचाई।
नेहरू का योगदान ना सिर्फ आजादी के बाद बल्कि आजादी से पहले भी काफी बहुमूल्य रहा है। प्रसिद्ध पत्रकार राजेंद्र माथुर ने 1989 में नेहरू की जन्म शताब्दी पर लिखा था,
"जवाहरलाल नेहरू जैसा सिपाही यदि गांधी को आजादी के आंदोलन में नहीं मिलता, तो 1927-28 के बाद भारत के नौजवानों को अपनी नाराज और बगावती अदा के बल पर गांधी के सत्याग्रही खेमे में खींचकर लाने वाला और कौन था? नेहरू ने उन सारे नौजवानों को अपने साथ लिया जो गांधी के तौर-तरीकों से नाराज थे, और बार-बार उन्होंने लिखकर, बोलकर, अपनी असहमति का इजहार किया। उन्होंने तीस की उस पीढ़ी को जबान दी जो 'बोलशेविक क्रांति' से प्रभावित होकर कांग्रेस के बेजुबान लोगों को लड़ाकू हथियार बनाना चाहती थी। लेकिन यह सारा काम उन्होंने कांग्रेस की केमिस्ट्री के दायरे में किया। यदि वे 1932-33 में लोहियावादियों की तरह बरताव करते, और अपनी अलग समाजवादी पार्टी बनाकर कांग्रेस से नाता तोड़ लेते, तो सुभाषचंद्र बोस की तरह कटकर रह जाते। उससे समाजवाद का तो कोई भला होता नहीं, हां, गांधी की फौज जरूर कमजोर हो जाती। गांधी से असहमत होते हुए भी नेहरू ने गांधी के सामने आत्मसमर्पण किया, क्योंकि अपने को न समझ में आने वाले जादू के सामने अपने को बिछा देने वाला भारतीय भक्तिभाव नेहरू में शेष था और अपने अक्सर बिगड़ पड़ने वाले पट्ट-शिष्य से लाड़ करना गांधी को आता था। बकरी का दूध पीने वाला कोई सेवाग्रामी जूनियर गांधी तीस के दशक में न तो युवक हृदय सम्राट का पद अर्जित कर सकता था और न महात्मा मोहनदास उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित कर सकते थे, क्योंकि आंख पर पट्टी बांधकर लीक पर चलने वाले शिष्यों की सीमा महात्माजी खूब समझते थे। नेहरू और गांधी के इस द्वंद्वात्मक सहयोग ने आजादी के आंदोलन के ताने-बाने को एक अद्भुत सत्ता दी और गांधी का जादू नेहरू के तिलस्म से जुड़कर न जाने कौन सा ब्रह्मास्त्र बन गया। खरा और सौ टंच सत्य जब दूसरे सौ टंच सत्य के साथ अपना अहं त्यागकर मिलता और घुलता है, तब ऐसे ही यौगिक बनते हैं, जैसे गांधी और नेहरू के संयोग से बने। उनकी तुलना आज के राजनीतिक जोड़तोड़ से कीजिए, तो आपको फर्क समझ में आ जाएगा।"
राजेंद्र माथुर के इस बात से स्पष्ट है कि नेहरू की दूरदृष्टि और लोकहित में लिए गए फैसले कितनी असरदायक रहे। आज इस मर्म को कांग्रेस पार्टी के नेताओं को ज्यादा समझने की जरूरत है। कांग्रेस आज की तारीख में जब बेहद कमजोर विपक्ष की भूमिका निभा रही है, तो इसमें कसूर इनके ही नेताओं और उनकी राजनीतिक सोच का है। ख़ासकर 80 के दशक से कांग्रेस की राजनीति नेहरू के पदचिन्हों से बिल्कुल भटक चुकी थी। मूल्यों से ज्यादा जोड़-तोड़ की राजनीति पर भरोसा दिखाया जाने लगा। लेकिन, राजनीतिक स्वार्थ का भांडा एक ना एक दिन फूट ही जाता है। यही बात अब सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी पर भी लागू होती है। क्योंकि, बीजेपी ने उसी रास्ते को चुना है जिस पर कभी चलकर कांग्रेस ने अपना बंटाधार कर लिया।
कुल मिलाकर आज के दौर में ना सिर्फ राजनीतिज्ञ बल्कि आम भारतीय नागरिक को नेहरू की कार्यशैली और दूरदर्शिता पर विचार करना चाहिए। समय-काल-परिस्थिति के अनुरूप अपना धर्म (ड्यूटी) कैसे निभाना है, कम से कम इसकी प्रेरणा पंडित जवाहर लाल नेहरू से मिल सकती है। उम्मीद यही की जानी चाहिए कि जनता वाट्सएप और फेसबुक पर विचरण करने वाले खर-दूषणों की पहचान करे और उनके 'वैचारिक प्रदूषणों' पर अपनी निजी समझ का 'स्प्रे' करती रहे।
(अमृत कुमार तिवारी समाचार फर्स्ट के Editor-in-Chief हैं। पंडित नेहरू के संदर्भ में लिखा गया उपरोक्त लेख उनके निजी विचार का हिस्सा है।)